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________________ आराधनासमुच्चयम् २७७ (३) देवकृत १४ अतिशय : (१) अरिहंत (तीर्थंकर) देव के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही पत्र-फूल और फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाते हैं। (२) कंटक और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक, सुरभित वायु चलने लगती है। (३) जीव पूर्व वैर को छोड़कर मैत्री भाव से रहने लगते हैं। (४) उतनी भूमि दर्पण तल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है। (५) सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमारदेव सुगन्धित जल की वर्षा करते हैं। (६) देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्य को रचते हैं। (७) सब जीवों को नित्य आनन्द उत्पन्न होता है। (८) वायुकुमार देव मन्द-मन्द शीतल पवन चलाते हैं। (९) कूप और तालाब निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं। (१०) आकाश धुआँ और उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है। (११) सम्पूर्ण जीवों को रोग आदि की बाधायें नहीं होती हैं। (१२) यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्मचक्र होते हैं। उन चक्रों को देखकर जनता को आश्चर्य होता है। (१३) तीर्थंकरों की चारों दिशाओं में (व विदिशाओं में) छप्पन सुवर्ण कमल, एक पादपीठ और दिव्य एवं विविध प्रकार के पूजन द्रव्य होते हैं। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार देवकृत अतिशय १३ हैं, क्योंकि अर्धमागधी भाषा नाम के अतिशय का कथन इन्होंने केवलज्ञान के ११ अतिशयों में लिखा है। निशीथ चूर्णि नामक ग्रन्थ में श्री अर्हन्त भगवान के १००८ बाह्य लक्षणों को उपलक्षण मानकर सत्वादि अन्तरंग लक्षणों को अनन्त कहा गया है। उसी प्रकार उपलक्षण से अतिशयों को परिमित मान करके भी उन्हें अनन्त कहा जा सकता है। इसमें कोई शास्त्रविरोध नहीं है। भगवान के ८ प्रातिहार्य : १. अशोक वृक्ष, २, तीन छत्र, ३. रत्नखचित सिंहासन, ४. भक्ति युक्त गणों द्वारा वेष्टित रहना, ५. दुन्दुभिनाद, ६. पुष्पवृष्टि, ७. प्रभामण्डल, ८. चौंसठ चमरयुक्तता।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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