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आराधनासमुन्वयम् २७६
इन्द्र, देवगंगा, पुर, गोपुर, चन्द्रमा, सूर्य, उत्तम घोड़ा, तालवृन्त (पंखा ), बाँसुरी, वीणा, मृदंग, मालाएँ, रेशमी वस्त्र, दुकान, कुण्डलादि चमकते हुए चित्र विचित्र आभूषण, फल सहित उपवन, परिपक्व फलोंफूलों एवं धान्यों से व्याप्त क्षेत्र (खेत), रत्नद्वीप, वज्र, पृथिवी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, वृषभ, चूड़ामणि, महानिधियों, कल्पलता, सुवर्ण, जम्बूद्वीप, गरुड़, नक्षत्र, तारे, राजमहल, सूर्यादि ग्रह, सिद्धार्थवृक्ष, आठ प्रातिहार्य और आठ मंगल द्रव्य आदि एक सौ आठ शुभ लक्षणों से तथा भँवरी, तिल, लहसुन आदि नौ सौ व्यंजन रूप १००८ लक्षणों में अरिहंत देव का शरीर सुशोभित होता है। (२) केवलज्ञान के दस अतिशय :
(१) जहाँ पर अरिहंत भगवान विराजमान रहते हैं, उनके चारों तरफ चारों दिशाओं में सौ-सौ योजन तक सुभिक्ष होता है।
(२) इस भूतल से पाँच हजार धनुष ऊपर आकाश में गमन होता है।
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(३) अरिहंत प्रभु के समक्ष परस्पर विरोधी सर्प नेवला, सिंह गाय आदि पशु परस्पर विरोध को छोड़कर प्रेम से एक साथ बैठते हैं अर्थात् उनके समक्ष अदया, हिंसा का अभाव होता है ।
(४) अरिहंत के कवलाहार अर्थात् मनुष्य और पशुओं के समान ग्रास वाले आहार का अभाव
है।
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(५) अरिहंत पर कोई उपसर्ग नहीं कर सकता अतः तिर्यंचकृत, मनुष्यकृत, देवकृत और अचेतनकृत किसी प्रकार का उपसर्ग नहीं होता है।
(६) चारों तरफ से मुख का अवलोकन होता है अर्थात् एक पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके स्थित भी प्रभु का मुख चारों दिशाओं में बैठे हुए मानवों को दिखता है।
(७) प्रभु के शरीर की छाया नहीं पड़ती है।
(८) उनकी आँखों की पलकें नहीं झपकतीं अर्थात् वे निर्निमेषदृष्टि रहते हैं।
(९) वे सब विद्याओं के ईश्वर होते हैं अर्थात् केवलज्ञानी हैं।
(१०) सजीव होते हुए भी उनके नख और केश वृद्धिंगत नहीं होते हैं।
केवली भगवान के ये १० अतिशय केवलज्ञान के निमित्त से होते हैं। अतः केवलज्ञानजन्य हैं। यद्यपि शास्त्रों में केवलज्ञानजन्य दश अतिशय लिखे हैं, परन्तु तिलोयपण्णत्ति में ११ अतिशय लिखे हैं। इन अतिशयों के साथ अठारह महाभाषा और सात सौ लघु भाषाओं सहित दिव्य ध्वनि का प्रादुर्भाव ग्यारहवाँ अतिशय कहा गया है।
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