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________________ भगवती सूत्र में लिखा है - आराधनासमुच्चयम् ९ २७४ मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निर्वृतिं सौधमूर्ध्नि । जिन्होंने पुरातन कर्मों का नाश कर मोक्षमहल को प्राप्त कर लिया है। 'ख्यातोऽनुशास्ता' जो सबके अनुशास्ता हैं, कृतकृत्य हैं, परिनिष्ठितार्थो यः सोऽस्तु सिद्ध:, कृतमंगलो मे ये सिद्ध भगवान मेरा मंगल करें। पंच आचरणों का जो स्वयं आचरण करते हैं और भव्य जीवों से भी आचरण कराते हैं, वे आचार्य कहलाते हैं। उप - जिनको समीप पाकर भव्य शिष्य विनयपूर्वक अध्ययन करते हैं, अतः वे उपाध्याय कहलाते हैं। जो रत्नत्रयमय मोक्षमार्ग की साधना करते हैं अथवा नित्य निरंजन शुद्धात्मा की आराधना करते हैं, वे साधु कहलाते हैं। इस प्रकार पंच परमेष्ठी सार्थक नाम के धारी हैं। अर्हन्त का स्वरूप - 1 विनिहतघातिचतुष्का नवकेवललब्धिजनितपरमात्म व्यपदेशा दिव्यध्वनि-निरूपिताशेषतत्त्वार्थाः ॥ २१२ ॥ त्रिभुवनपतिभिरभिष्टुतनिजयशसोद्भूत विहरणास्थानाः । देहप्रभृतिसुविभवाः सकलात्मानः स्युरर्हन्त: ॥ २९३ ॥ युग्मम् ।। अन्वयार्थ - विनिहतघातिचतुष्काः नष्ट कर दिया है घातिया चतुष्कों को जिन्होंने । नवकेवललब्धिजनित - परमात्म-व्यपदेशा - नव केवल लब्धिजनित परमात्मा नामधारी । दिव्यध्वनि निरूपिताशेषतत्त्वार्था: दिव्य ध्वनि के द्वारा निरूपित किया है सारे तत्त्वार्थ को जिन्होंने । त्रिभुवनपतिभिः - तीन लोक के पति (स्वामी वा इन्द्र) के द्वारा अभिष्टुतनिजयशसोद्भूतविहरणास्थाना: स्तुत्य निज यश से उत्पन्न है विहरणस्थान जिनका । देहप्रभृतिसुविभवा: - शरीर सम्बन्धी चौंतीस विभव के धारक | सकलात्मानः अरिहंत परमेष्ठी होते हैं। सकल परमात्मा । अर्हन्तः अर्थ- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म कहलाते हैं । इन चार घातिया कर्मों का नाश करने वाले अरहंत होते हैं। - - क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक वीर्य ये नवलब्धियाँ हैं । ज्ञानावरण कर्म के अत्यन्त क्षय हो जाने से क्षायिक केवलज्ञान होता है। दर्शनावरण कर्म के अत्यन्त क्षय होने से क्षायिक (केवल ) दर्शन होता है। दानान्तराय कर्म का क्षय होने से अनन्त प्राणियों का उपकार करने वाला दिव्य उपदेश क्षायिक अभय दान कहलाता है । समस्त लाभान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षय से 1
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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