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________________ आराधनासमुच्चयम् .२७३ के अनुसार गुण है उसको सार्थक नाम कहते हैं। जैसे शं सुखं कर: करोति इति शंकर: अर्थात् सुख को करने वाला शंकर होता है। 'दुरितान् हरतीति हरः' = पापों का नाश करने वाला 'हर' कहलाता है। भ्रातुः भगं (कल्याणं) इच्छत्तीति भगिनी - अर्थात् भाई का कल्याण चाहने वाली भगिनी (बहिन) कहलाती है। अव समन्तात् ऋद्धं, वृद्ध, मान, ज्ञानं यस्यासौ वर्द्धमानः । जिसका ज्ञान वर्द्धमान है, परिपूर्ण है, वह वर्द्धमान कहलाता है। जिसका नाम तो सुलोचन है और आँखों से अन्धा हो, नाम तो लक्ष्मीबाई हो परन्तु भीख माँगने वाली हो, ऐसे नाम असार्थक कहलाते हैं। __महापुरुषों के नाम सार्थक होते हैं, पंच परमेष्ठी भी सार्थक नाम के धारी होते हैं। परम (उत्कृष्ट) पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी। उत्कृष्ट पद में स्थित आत्मा को परमेष्ठी कहते हैं। अरिहंताणं - चार घातिया कर्म रूपी शत्रुओं का हनन (नाश) करने वाले होने से अरिहंत कहलाते हैं अथवा - अरहंत - 'अ' - अरि शत्रु मोहनीय कर्म, ज्ञानगुण और दर्शन गुण के आच्छादक ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म रज कहलाते हैं। 'र' रहस्य - अन्तराय कर्म है। अरि, रज, रहस्य के हन्ता अरहंत कहलाते हैं। अथवा - सातिशय पूजा के योग्य होने से अरहंत कहलाते हैं। क्योंकि पंच कल्याणकों के समय में देवों के द्वारा की गई पूजा को प्राप्त होने से अरहंत कहलाते हैं। मूलाचार में कुन्दकुन्दाचार्य ने मंगलाचरण में अरहंत के स्वरूप में लिखा है - अरहंति णमोक्कारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए। रजहंता अरिहंति य अरहंता तेण उच्चदे॥ जो नमस्कार के योग्य हैं, लोक में देवों के द्वारा पूजा को प्राप्त हुए हैं इसलिए अरिहंत हैं। मोहनीय कर्मादि चार घातिया रूपी कर्मरज के नाशक होने से अरहन्त हैं, यह इनका सार्थक नाम है। सितं बद्धमष्ट प्रकार कर्मेन्धनं ध्वान्तं दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैः ते सिद्धाः। सि - बँधे हुए आठ प्रकार के कर्म रूपी ईन्धन को शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा । द्ध - ध्मातः नष्ट कर दिया है, उनको सिद्ध कहते हैं। ___अथवा 'सिध्' धातु गमन अर्थ में भी आती है। जो शिवलोक में पहुंच चुके हैं और वहाँ से कभी लौट कर नहीं आते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं। 'सिध्' धातु संशोधन अर्थ में भी आती है, जिससे अर्थ निकलता है कि जिन्होंने आत्मीय गुणों को प्राप्त कर लिया है। जिनकी आत्मा में अपने स्वाभाविक अनन्त गुणों का विकास हो गया है, उनको सिद्ध कहते हैं।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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