SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ औदारिक, तैजस और कार्मण रूप तीन शरीर का नाश करने के लिए अयोगकेवली के समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यान होता है। आराधनासमुच्चयम् २६७ पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यान उपशम श्रेणी में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म सांपरायिक और उपशांत मोह इन चार गुणस्थानों में होता है। क्षपक श्रेणी में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण एवं सूक्ष्म सांपराय इन तीन गुणस्थानों में होता है तथा किसी आचार्य के अभिप्राय से पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान भी होता है। एकत्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यान क्षीणकषाय नामक १२वें गुणस्थान में ही होता है, ऐसा पूज्यपाद, अकलंकदेव आदि का अभिप्राय है, परन्तु षट्खण्डागम में कथंचित् इस ध्यान को ११वें गुणस्थान में भी है। धवला की १३वीं पुस्तक में लिखा है कि उपशांत कषाय जीव के भवक्षय और कालक्षय के निमित्त से पुनः कषाय के प्राप्त होने पर एकत्व वितर्क अवीचार ध्यान का प्रतिपात भी देखा जाता है। इससे जाना जाता है कि एकत्व वितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान ११-१२ दो गुणस्थानों में होता है। सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति शुक्ल ध्यान १३वें गुणस्थान में होता है और समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाति ध्यान चौदहवें गुणस्थान में होता है। - शुक्ल ध्यान का विषय अर्थेष्वेकं पूर्वश्रुतजनितज्ञानसंपदाश्रित्य । त्रिविधात्मकसंक्रान्त्या ध्यायत्याद्येन शुक्लेन ||२००|| अन्वयार्थ - पूर्व श्रुत जनित ज्ञानसम्पदाश्रित्य पूर्वश्रुत से उत्पन्न ज्ञानसम्पदा का आश्रय लेकर । आछेन प्रथम | शुक्लेन - पृथक्त्व वितर्क शुक्ल ध्यान के द्वारा । अर्थेषु - अर्थों में। एक एकद्रव्य या पर्याय को । त्रिविधात्मकसंक्रान्त्या तीन प्रकार की संक्रान्ति से । ध्यायति ध्याता है। - - - - अर्थ - पृथक्त्व वितर्कवीचार शुक्ल ध्यान से ११ अंग चौदह पूर्व को जानने वाला श्रुतकेबली द्रव्य, गुण, पर्याय रूप पदार्थों में एक द्रव्य, गुण या पर्याय का आश्रय लेकर अर्थ, व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति से चिंतन करता है। अर्थात् अर्थ को छोड़कर पर्याय का चिंतन करता है, एक योग को छोड़कर दूसरे योग का आश्रय लेता है। एक व्यञ्जन से व्यञ्जनान्तर की संक्रान्ति होती है। इस प्रकार अर्थ व्यञ्जन और योग के परिवर्तन रूप तीन प्रकार की संक्रान्ति होती है। वस्त्वेकं पूर्वश्रुतवेदीप्रव्यक्तमाश्रितो येन । ध्यायति संक्रमरहितं शुक्लध्यानं द्वितीयं तत् ॥ २०१ || अन्वयार्थ - येन - जिसके द्वारा । पूर्वश्रुतवेदीप्रव्यक्तं पूर्व श्रुत के ज्ञाता महामुनियों के द्वारा कथित एकं एक वस्तु वस्तु का आश्रय लिया जाता है तथा । संक्रमरहितं - संक्रमण रहित जो । ध्यायति - ध्यान करता है। तत् - वह । द्वितीयं - दूसरा एकत्व वितर्काबीचार नामक । शुक्लध्यानं - शुक्ल ध्यान है। - -
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy