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________________ आराधनासमुच्चयम् २६६ इति - इस प्रकार । आचार्याः आचार्य । आहुः - कहते हैं । अर्थ - पृथक्त्ववितर्कवीचार, एकत्व वितर्क वीचार, सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रिया निवर्ति के भेद से शुक्ल ध्यान के चार प्रकार हैं। वितर्क का अर्थ श्रुत हैं अर्थात् विशेष रूप से तर्कणा जिसमें होती है उसको वितर्क कहते हैं। ध्यान करने योग्य द्रव्य को अर्थ कहते हैं, इससे द्रव्य और पर्याय को ग्रहण किया जाता है। वचन को व्यचन कहते हैं। मन, वचन, काय की क्रिया को योग कहते हैं। परिवर्तन को संक्रान्ति कहते हैं। - अर्थ व्यञ्जन योग संक्रान्ति को वीचार कहते हैं । पृथक् पृथक् अर्थ-व्यञ्जन योग का आश्रय जिसमें होता है, उसको पृथक्त्व वितर्क वीचार कहते हैं। इस ध्यान से मोहनीय कर्म का नाश होता है। जिसमें अर्थ, व्यञ्जन और योग का परिवर्तन नहीं है; एक योग का आश्रय लेकर ध्याता एक ही द्रव्य का चिंतन करता है तथा श्रुत सहित है, उस दूसरे शुक्ल ध्यान को एकत्व वितर्कवीचार कहते हैं। यह ध्यान भी निश्चल निष्कंप तथा असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा करता हुआ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म का उच्छेद करता है। एकत्ववितर्कवीचार शुक्ल ध्यान के द्वारा कर्मों का नाश कर आत्मा केवलज्ञानी बन जाता है तथा यह केवलज्ञानी सर्व पदार्थों को एक साथ जानता देखता हुआ विहार करता है। जब सयोगकेवली की आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है, तब केवली समुद्घात करता है । तदनन्तर तेरहवें गुणस्थान का काल एक अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, तब सर्व प्रकार के मनोयोग और बादर काययोग को त्याग कर सूक्ष्म काययोग का आलम्बन लेकर सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति ध्यान को स्वीकार करता है। इस ज्ञान में श्रुतज्ञान का अभाव है तथा इसमें अर्थ व्यंजन योग संक्रान्ति भी नहीं है तथा क्रिया का अर्थ योग है। जिसमें योग सूक्ष्म हो गया है अतः सूक्ष्मक्रिया यह नाम सार्थक है। यह ध्यान अप्रतिपाती है, यह ध्यान छूटकर पुनः नहीं होता है, इसके बाद दूसरा व्युपरत क्रिया नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यान होता है । अत: यह ध्यान सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती सार्थक नामधारी है। चतुर्थ शुक्ल ध्यान का नाम समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति या व्युपरतक्रियानिवृत्ति है । जिस ध्यान में प्राणापान रूप क्रिया का तथा सर्व प्रकार के काययोग, वचनयोग, मनोयोग द्वारा होने वाली आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप क्रिया का उच्छेद हो जाता है, उसे समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति ध्यान कहते हैं। नाक द्वारा निकलने वाला श्वास जब निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है तो मोह कर्म का नाश होता है और मन स्थिर हो जाता है तथा जब यह श्वासोच्छ्वास क्रिया सर्वथा नष्ट हो जाती है, सम्पूर्ण अघातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं तब मुक्ति पद की प्राप्ति होती है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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