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आराधनासमुच्चयम् * २६४
को पंचेन्द्रिय पद की प्राप्ति होना दुर्लभ है। पंचेन्द्रिय में भी मनुष्यत्व की प्राप्ति होना दुर्लभ है। मनुष्य पर्याय प्राप्त करके भी तपश्चरण के योग्य दीर्घ आयु प्राप्त करना दुर्लभ है। मानव पर्याय में दीर्घायु प्राप्त करके भी मुनिपद के धारण करने योग्य कुल, उत्तमदेश, नीरोगता, योग्य और अयोग्य का विचार, युक्तिपूर्वक शास्त्रों के अर्थ ग्रहण करना, उनको धारण करना, शारीरिक सौन्दर्य, शारीरिक, वाचनिक, मानसिक शक्ति, विनयसम्पन्नता आदि वस्तुएँ आगे-आगे दुर्लभ एवं दुर्लभतर हैं, बड़ी कठिनता से प्राप्त होती हैं।
लब्धेषु तेषु नितरां बोधिर्दुर्लभतया विशुद्धतमा ।
कुपथाकुले हि लोके यस्माद्बलिनः कषायाश्च ॥१९५ ।। अन्वयार्थ - तेषु - उपरिकथित सर्व वस्तुओं के । लब्धेषु - प्राप्त होने पर भी। विशुद्धतमा - विशुद्धतर। बोधिः - रत्नत्रय की प्राप्ति। दर्लभतया - दुर्लभतर है। यस्मात् - क्योंकि । हि - निश्चय से। कुपथाकुल - कुपथ से आकुलित । लोके - लोक में । कषायाः - ये कषायें। बलिनः - बलवान
अर्थ - उपरिश्लोक में कथित पंचेन्द्रियत्व, मनुष्यत्व, दीर्घ आयुत्व, उत्तम देश-कुल में जन्म, आरोग्य आदि को प्राप्त करके भी विशुद्ध रत्नत्रय की प्राप्ति रूप बोधि की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। क्योंकि ये कषायें ही बोधि की घातक हैं। अतः संसारी मानव विषयवासनाओं में फंसकर बोधि को प्राप्त करने की बात भूल रहा है। बोधि की तरफ इसका लक्ष्य नहीं है। बोधि का प्राप्त होना अति दुर्लभ है।
बोधि की प्राप्ति में आलस्य का निषेध इत्यतिदुर्लभरूपां बोधिं लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् ।
संसृतिभीमारण्ये भ्रमति बराको नरः सुचिरम् ॥१९६ ॥ अन्वयार्थ - इति - इस प्रकार । अतिदुर्लभरूपां - अति दुर्लभ स्वरूप । बोधिं - बोधि को। लब्ध्वा - प्राप्त करके । यदि - यदि । प्रमादी - आलसी । स्यात् - होगा (होता है) तो। वराकः - बेचारा। नर: - मानव | सुचिरं - बहुत काल तक। संसृतिभीमारण्ये - संसार रूपी भयंकर अरण्य (जंगल) में। भ्रमति - भ्रमण करता है।
अर्थ - रत्नत्रयरूपी बोधि की प्राप्ति अति दुर्लभ है, उस दुर्लभ बोधि को प्राप्त करके जो प्राणी प्रमाद करता है, उसके प्रति अनुराग करके उसमें स्थिर नहीं होता है तो वह मूर्ख मानव चिर (दीर्घ) काल तक संसार अटवी में भ्रमण करता हुआ अनन्त दु:खों को भोगता रहता है।
पुनः बोधि की प्राप्ति की दुर्लभता का कथन पतिता बोधिः सुलभा नो पश्चात्सुमहत्तापि कालेन।
पतितमनर्थ्य रत्नं सलिलनिधावन्धकार इव ।।१९७ ।। अन्वयार्थ - पतिता - पतित हुई। बोधिः - रत्नत्रय की प्राप्ति। सुमहता - बहुत से। कालेन