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________________ आराधनासमुच्चयम् २४९ श्रेणीबद्धोंका एक दिशा सम्बन्धी प्रमाण ६२ हैं, उसके आधे अर्थात् ३१ श्रेणीबद्ध तो स्वयम्भूरमण समुद्र के उपरिम भाग में स्थित हैं और अवशेष विमानों में से १५ स्वयम्भूरमण द्वीप के ऊपर, आठ अपने से लगते समुद्र के ऊपर, ४ अपने से लगते द्वीप के ऊपर, २ अपने से लगते समुद्र के ऊपर, १ अपने से लगते द्वीप के ऊपर तथा अन्तिम एक अपने से लगते अनेक द्वीप - समुद्रों के ऊपर है। जिनके पृथक् पृथक् इन्द्र हैं ऐसे पहले व पिछले चार चार कल्पों में सौधर्म, सानत्कुमार, आनत आरण ये चार दक्षिण कल्प हैं। ईशान, माहेन्द्र, प्राणत व अच्युत ये चार उत्तर विमान हैं, क्योंकि जैसा कि निम्न प्ररूपणा से विदित है, इसे क्रम से दक्षिण व उत्तर द्विषण के श्रेणी सम्मिलित हैं। तहाँ सभी दक्षिण कल्पों में उस उस युगल सम्बन्धी सर्व इन्द्रक पूर्व, पश्चिम व दक्षिण दिशा के श्रेणीबद्ध और नैर्ऋत्य व अग्नि दिशा के प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। सभी उत्तर कल्पों में उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध तथा वायु व ईशान दिशा के प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। बीच के ब्रह्म आदि चार युगल जिनका एक-एक ही इन्द्र माना गया है, उनमें दक्षिण व उत्तर का विभाग न करके सभी इन्द्रक, सभी श्रेणीबद्ध व सभी प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। छह युगलों और शेष कल्पों में यथाक्रम से प्रथम युगल में अपने अन्तिम इन्द्रक से सम्बद्ध अठारहवें श्रेणीबद्ध में तथा इसके आगे दो हीन क्रम से अर्थात् १६वें, १४वें, १२वें, १०वें, ८वें और छठे श्रेणीबद्ध में, दक्षिण भाग में, दक्षिण इन्द्र और उत्तर भाग में उत्तर इन्द्र स्थित है। अपने-अपने पटल के अन्तिम इन्द्रक की दक्षिण दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से १८वें, १६वें १४वें १२वें, छठे और पुनः छठे श्रेणीबद्ध विमान में क्रम से सौधर्म, सानत्कुमार, ब्रह्म, लांतव, आनत और आरण ये छह इन्द्र स्थित हैं। उन्हीं इन्द्रकों की उत्तर दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से १८वें १६वें, १०वें, ८वें, छठे और पुनः छठे श्रेणीबद्धों में क्रम से ईशान, माहेन्द्र, महाशुक्र, सहस्रार, प्राणत और अच्युत ये छह इन्द्र रहते हैं। इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक इन तीनों प्रकार के विमानों के ऊपर समचतुष्कोण व दीर्घ विविध प्रकार के प्रासाद स्थित हैं। ये सब प्रासाद सात, आठ, नौ, दस भूमियों से भूषित हैं। आसनशाला, नाट्यशाला व क्रीड़नशाला आदिकों से शोभायमान हैं। सिंहासन, गजासन, मकरासन आदि से परिपूर्ण हैं। मणिमय शय्याओं से कमनीय हैं। अनादिनिधन व अकृत्रिम विराजमान हैं। प्रधान प्रासाद के पूर्व दिशाभाग आदि में चार-चार प्रासाद होते हैं। दक्षिण इन्द्रों में वैर्ड्स, रजत, अशोक और मृषत्कसार तथा उत्तर इन्द्रों में रुचक, मन्दर, अशोक और सप्तच्छद ये चार-चार प्रासाद होते हैं। सौधर्म व सानत्कुमार युगल के गृहों के आगे स्तम्भ होते हैं, जिन पर तीर्थंकर बालकों के वस्त्राभरणों के पिटारे लटके रहते हैं। सभी इन्द्रमन्दिरों के सामने चैत्य वृक्ष होते हैं। सौधर्म इन्द्र के प्रासाद की ईशान दिशा में सुधर्मा सभा, उपपाद सभा और जिनमन्दिर हैं ( इस प्रकार अनेक प्रासाद व पुष्प वाटिकाओं आदि से युक्त वे इन्द्रों के नगरों में) एक के पीछे एक ऊँची-ऊँची पाँच वेदियाँ होती हैं। प्रथम बेदी के बाहर चारों दिशाओं में देवियों के भवन, द्वितीय के बाहर चारों दिशाओं में पारिषद, तृतीय के बाहर
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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