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________________ आराधनासमुच्चयम्२४१ नाम के देव रहते हैं। इस स्थल पर एक के पीछे एक करके १२ वेदियाँ हैं, जिनके बीच में १२ भूमियाँ हैं। यहाँ पर ह.पु. में वापियों वाली ५ भूमियों को छोड़कर केवल परिवार वृक्षों वाली ७ भूमियाँ बतायी हैं। इन सात भूमियों में आदृत युगल या वेणु युगल के परिवार देवों के वृक्ष हैं। तहाँ प्रथम भूमि के मध्य में उपरोक्त मूल वृक्ष स्थित है। द्वितीय में वन वापिकाएँ हैं। तृतीय की प्रत्येक दिशा में २७ करके कुल १०८ वृक्ष महामान्यों अर्थात् त्रायस्त्रिंशों के हैं। चतुर्थ की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं, जिन पर स्थित वृक्षों पर उसकी देवियाँ रहती हैं। पाँचवीं में केवल वापियाँ हैं। छठी में वनखण्ड हैं। सातवीं की चारों दिशाओं में कुल १६००० वृक्ष अंगरक्षकों के हैं। अष्टम की वायव्य, ईशान व उत्तर दिशा में कुल ४००० वृक्ष सामानिकों के हैं। नवम की आग्नेय दिशा में कुल ३२,००० वृक्ष आभ्यन्तर पारिषदों के हैं। दसवीं की दक्षिण दिशा में ४०,००० वृक्ष मध्यम पारिषदों के हैं। ग्यारहवों को नैर्ऋत्य दिशा म ४८,००० वृक्ष बाह्य पारिषदों के हैं। बारहवीं की पश्चिम दिशा में सात वृक्ष अनीक महत्तरों के हैं। सब वृक्ष मिलकर १,४०,१२० होते हैं। स्थल के चारों ओर तीन वन खंड हैं। प्रथम की चारों दिशाओं में देवों के निवासभूत चार प्रासाद हैं। विदिशाओं में से प्रत्येक में चार-चार पुष्करिणी हैं प्रत्येक पुष्करिणी की चारों दिशाओं में आठ-आठ कूट हैं। प्रत्येक कूट पर चार-चार प्रासाद हैं, जिन पर उन आदृत आदि देवों के परिवार देव रहते हैं। इसी प्रकार प्रासादों के चारों तरफ भी आठ कूट बताये हैं। इन कूटों पर उन आदृत युगल या वेणु युगल का परिवार रहता है। विदेह के ३२ क्षेत्र : पूर्व व पश्चिम की भद्रशाल वन की वेदियों से आगे जाकर सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ चार-चार वक्षारगिरि और तीन-तीन विभंगा नदियाँ एक वक्षार व एक विभंगा के क्रम से स्थित हैं। इन वक्षार व विभंगा के कारण उन नदियों के पूर्व व पश्चिम भाग आठ-आठ भागों में विभक्त हो जाते हैं। विदेह के ये ३२ खण्ड उसके ३२ क्षेत्र कहलाते हैं। उत्तरीय पूर्व विदेह का सर्वप्रथम क्षेत्र कच्छा नाम का है। इनके मध्य में पूर्वापर लम्बायमान भरत क्षेत्र के विजयार्धवत् एक विजयार्ध पर्वत है। उसके उत्तर में स्थित नील पर्वत की वनवेदी के दक्षिण पार्श्वभाग में पूर्व व पश्चिम दिशाओं में दो कुण्ड हैं, जिनसे रक्ता व रक्तोदा नाम की दो नदियाँ निकलती हैं। दक्षिणमुखी होकर बहती हुई वे विजयाध की दोनों गुफाओं में से निकलकर नीचे सीता नदी में जा मिलती हैं। जिसके कारण भरत क्षेत्र की भाँति यह देश भी छह खंडों में विभक्त हो गया है। यहाँ भी उत्तर म्लेच्छ खंड के मध्य एक वृषभगिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। इस क्षेत्र के आर्यखंड की प्रधान नगरी का नाम क्षेमा है। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में दो नदियाँ व एक विजया के कारण छह-छह खंड उत्पन्न हो गये हैं। विशेष यह है कि दक्षिण वाले क्षेत्रों में गंगा-सिन्धु-नदियाँ बहती हैं। मतान्तर से उत्तरीय क्षेत्रों में गंगा-सिंधु व दक्षिणी क्षेत्रों में रक्ता-रक्तोदा नदियाँ हैं। पूर्व व अपर दोनों विदेहों में प्रत्येक क्षेत्र के सीता-सीतोदा नदी के दोनों किनारों पर आर्यखण्डों में मागध, बरतनु और प्रभास नामवाले तीन-तीन तीर्थस्थान हैं। पश्चिम विदेह के अंत में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीतोदा नदी के दोनों ओर भूतारण्यक वन है। इसी प्रकार पूर्व विदेह के अंत में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीता नदी के दोनों ओर देवारण्यक वन हैं।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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