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________________ आराधनासमुच्चयम् ० २३६ उत्तर-दक्षिण लम्बायमान, ४, ४ करके कुल १६ बक्षार पर्वत हैं। एक ओर ये निषध व नील पर्वतों को स्पर्श करते हैं और दूसरी ओर सीता व सीतोदा नदियों को । प्रत्येक वक्षार पर चार-चार कूट हैं, नदी की तरफ सिद्धायतन है और शेष कूटों पर व्यन्तर देव रहते हैं। इन कूटों का सर्व कथन हिमवान पर्वत के कूटोंवत् है । भरत क्षेत्र के पाँच म्लेच्छ खण्डों में से उत्तर वाले तीन के मध्यवर्ती खण्ड में बीचों-बीच एक वृषभगिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। यह गोल आकार वाला है। इसी प्रकार विदेह के ३२ क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्र में भी जानना । ग्रह : हिमवान पर्वत के शीर्ष पर बीचोंबीच पद्म नाम का द्रह है। इसके तट पर चारों कोनों पर तथा उत्तर दिशा में ५ कूट हैं और जल में आठों दिशाओं में आठ कूट हैं। हद के मध्य में एक बड़ा कमल है, जिसके ११००० पत्ते हैं। इस कमल पर 'श्री' देवी रहती है। इस प्रधान कमल की दिशा - विदिशाओं में उसके परिवार के अन्य भी अनेक कमल हैं। कुल कमल १४०९१६ हैं। तहाँ वायव्य, उत्तर व ईशान दिशाओं में कुल ४००० कमल उसके सामानिक देवों के हैं। पूर्वादि चार दिशाओं में से प्रत्येक में ४००० ( कुल १६०००) कमल आत्मरक्षकों के हैं। आग्नेय दिशा में ३२००० कमल आभ्यन्तर पारिषदों के, दक्षिण दिशा में ४०,००० कमल मध्यम पारिषदों के, नैऋत्य दिशा में ४८००० कमल बाह्य पारिषदों के हैं। पश्चिम में ७ कमल सप्त अनीक महत्तरों के हैं तथा दिशा व विदिशा के मध्य आठ अन्तर दिशाओं में १०८ कमल त्रयस्त्रिंशों के हैं। इसके पूर्व, पश्चिम व उत्तर द्वारों से क्रम से गंगा, सिन्धु व रोहितास्या नदी निकलती है। महा हिमवान् आदि शेष पाँच कुलाचलों पर स्थित महापद्म, तिर्गिछ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक नाम के ये पाँच द्रह हैं। इन हदों का सर्व कथन कूट कमल आदि का उपर्युक्त पद्म सरोवर के समान ही जानना चाहिए। विशेषता यह है कि तन्निवासिनी देवियों के नाम क्रम से ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी है। कमलों की संख्या तिगिंछ तक उत्तरोत्तर दूनी है। केसरी की तिगिंछवत्, महापुण्डरीक की महापद्म वत् और पुण्डरीक की पद्मवत् है । अन्तिम घुण्डरीक द्रह से पद्मद्रहवत् रक्ता, रक्तोदा व सुवर्णकूला ये तीन नदियाँ निकलती हैं और शेष द्रहों से दो-दो नदियाँ केवल उत्तर व दक्षिण द्वारों से निकलती हैं। देवकुरु व उत्तरकुरु में दस द्रह हैं अथवा दूसरी मान्यता से २० द्रह हैं। इनमें देवियों के निवासभूत कमलों आदि का सम्पूर्ण कथन पदमद्रह वत् जानना । ये द्रह नदी के प्रवेश व निकास के द्वारों से संयुक्त हैं। सुमेरु पर्वत के नन्दन, सौमनस व पाण्डुकवन में १६-१६ पुष्करिणी हैं, जिनमें सपरिवार सौधर्म व ऐशानेन्द्र क्रीड़ा करते हैं। वहाँ मध्य में इन्द्र का आसन है। उसकी चारों दिशाओं में चार आसन लोकपालों के हैं, दक्षिण में एक आसन प्रतीन्द्र का, अग्रभाग में आठ आसन अग्रमहिषियों के, वायव्य और ईशान दिशा में ८४००,००० आसन सामानिक देवों के, आग्नेय दिशा में १२,००,००० आसन अभ्यन्तर पारिषदों से, दक्षिण में १४,००,००० आसन मध्यम पारिषदों के, नैऋत्य दिशा में १६,००,००० आसन बाह्य पारिषदों के तथा उसी दिशा में ३३ आसन त्रायस्त्रिंशों के, पश्चिम में छह आसन महत्तरों के और एक आसन महत्तरिका का है। मूल मध्य सिंहासन की चारों दिशाओं में ८४,००० आसन अंगरक्षकों के हैं (इस प्रकार कुल आसन ९,२६,८४,०५४ होते हैं ।)
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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