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________________ आराधनासमुच्चयम२३४ पर नन्दनवन के स्थान पर यह चारों ओर से युगपत् ५०० योजन संकुचित होता है। तत्पश्चात् ११००० योजन समान विस्तार से जाता है। पुन: ५१५०० योजन क्रमिक हानिरूप से जाने पर, सौमनस वन के स्थान पर चारों ओर से ५०० योजन संकुचित होता है। यहाँ से ११००० योजन तक पुनः समान विस्तार से जाता है और उसके ऊपर २५००० योजन क्रमिक हानि रूप से जाने पर पाण्डुकवन के स्थान पर चारों ओर से युगपत् ४९४ योजन संकुचित होता है। इसका बाह्य विस्तार भद्रशाल आदि वनों के स्थान पर क्रम से १००००,९९५४१, ४२७२ तथा १००० योजन प्रमाण है। इस पर्वत के शीश पर पाण्डुकवन के बीचोंबीच ४० योजन ऊँची तथा १२ योजन मूल विस्तार युक्त अन्त में ८ योजन विस्तार वाली चूलिका Hari --- ..." 1 मेरु की परिधियाँ - नीचे से ऊपर की ओर इस पर्वत की परिधि सात मुख्य भागों में विभाजित है - हरितालमयी, वैडूर्यमयी, सर्वरत्नमयीं, वज्रमयी, मद्यमयी और पद्मरागमयी अर्थात् लोहिताक्षमयी | इन छहों में से प्रत्येक १६५०० योजन ऊँची है। भूमितल अवगाही सप्त परिधि नाना प्रकार है। पृथ्वीतल के नीचे १००० योजन पृथिवी, उपल, बालुका और शर्करा ऐसे चार भाग रूप है तथा ऊपर चूलिका के पास जाकर तीन काण्डको रूप है। प्रथम काण्डक सर्वरत्नमयी, द्वितीय जाम्बूनदमयी और तीसरा काण्डक चूलिका है जो वैडूर्यमयी है। वनखण्ड निर्देश - सुमेरु पर्वत के तलभाग में भद्रशाल नाम का वन है जो पाँच भागों में विभक्त है - भद्रशाल, मानुषोत्तर, देवरमण, नागरमण और भूतरमण । इस वन की चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। इनमें से एक मेरु से पूर्व तथा सीता नदी के दक्षिण में है। दूसरा मेरु की दक्षिण व सीतोदा के पूर्व में है। तीसरा मेरु से पश्चिम तथा सीतोदा के उत्तर में है और चौथा मेरु के उत्तर व सीता के पश्चिम में है। इन चैत्यालयों का विस्तार पाण्डुक बन के चैत्यालयों से चौगुना है। इस वन में मेरु के चारों तरफ सीता व सीतोदा नदी के दोनों तटों पर एक-एक करके आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं। भद्रशाल वन से ५०० योजन ऊपर जाकर मेरु पर्वत की कटनी पर द्वितीय वन स्थित है। इसके दो विभाग हैं - नन्दन व उपनन्दन । इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में पर्वत के पास क्रम से मान, धारणा, गन्धर्व व चित्र नाम के चार भवन हैं जिनमें क्रम से सौधर्म इन्द्र के चार लोकपाल सोम, यम, वरुण व कुबेर क्रीड़ा करते हैं। कहीं-कहीं इन भवनों को गुफाओं के रूप में बताया जाता है। यहाँ भी मेरु के पास चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। प्रत्येक जिनभवन के आगे दो-दो कूट हैं - जिन पर दिक्कुमारी देवियों रहती हैं। चारों विदिशाओं में सौमनस वन की भाँति चार-चार करके कुल १६ पुष्करिणियाँ हैं। इस वन की ईशान दिशा में एक बलभद्र नाम का कूट है, जिसका कथन सौमनस बन के बलभद्र कूट के समान है। इस पर बलभद्र देव रहता है। नन्दन वन से ६२५०० योजन ऊपर जाकर सुमेरु पर्वत पर तीसरा सौमनस वन स्थित है। इसके दो विभाग हैं - सौमनस व उपसौमनस । इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में मेरु के निकट वज्र, वज्रमय, सुवर्ण व सुवर्णप्रभ नाम के चार पुर हैं, इनमें भी नन्दन वन के भवनों के समान सोम आदि लोकपाल क्रीड़ा करते हैं। चारों विदिशाओं में चार-चार पुष्करिणी हैं। पूर्वादि चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। प्रत्येक जिनमन्दिर सम्बन्धी बाह्य
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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