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________________ आराधनासमुच्चयम् - २३३ ११ कूट हैं। पूर्व दिशा के कूट पर जिनायतन और शेष कूटों पर यथायोग्य नामधारी व्यन्तर देव व देवियों के भवन हैं। इस पर्वत के शीर्ष पर बीचों-बीच पद्य नामका ह्रद है। उसके बाद हैमवत् क्षेत्र के उत्तर और हरिक्षेत्र के दक्षिण में दूसरा महाहिमवान पर्वत है इस पर आठ कूट हैं, पूर्व दिशा के कूट पर जिन मन्दिर है। शेष कूटों पर व्यंतर देव रहते हैं। इसके शीर्ष पर बीचों-बीच महापद्य नामक तालाब है। तदनन्तर हरिवर्ष के उत्तर व विदेह के दक्षिण में तीसरा निषध पर्वत है। इस पर्वत पर पूर्ववत् ९ कूट हैं। इसके शीर्ष पर पूर्ववत् तिगिंछ नाम का द्रह है। तदनन्तर विदेह की उत्तर तथा रम्यकक्षेत्र की दक्षिण दिशा में दोनों क्षेत्रों को विभक्त करने वाला निषधपर्वत के सदृश चीथा नील पर्वत है। इस पर पूर्ववत् ९ कूट हैं। इतनी विशेषता है कि इस पर स्थित द्रह का नाम केसरी है। तदनन्तर रम्यक व हैरण्यवत क्षेत्रों का विभाग करने वाला तथा महा हिमवान पर्वत के सदृश ५वाँ रुक्मि पर्वत है, जिस पर पूर्ववत् आठ कूट हैं। इस पर्वत पर महापुण्डरीक द्रह है। तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा इसके द्रह का नाम पुण्डरीक है। अन्त में जाकर हैरण्यवत व ऐरावत क्षेत्रों की सन्धि पर हिमवान पर्वत के सदृश छठा शिखरी पर्वत है, जिस पर ११ कूट हैं। स्थित द्रह का नाम पुण्डरीक है। तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा इसके द्रह का नाम महापुण्डरीक है। भरत क्षेत्र के मध्य में पूर्व-पश्चिम लम्बायमान विजयार्ध पर्वत है। भूमितल से १० योजन ऊपर जाकर इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में विद्याधर नगरों की दो श्रेणियाँ हैं। तहाँ दक्षिण श्रेणी में ५५ और उत्तर श्रेणी में ६० नगर हैं। इन श्रेणियों से भी १० योजन ऊपर जाकर उसी प्रकार दक्षिण व उत्तर दिशा में आभियोग्य देवों की श्रेणियाँ हैं। इसके ऊपर ९ कूट हैं। पूर्व दिशा के कूट पर सिद्धायतन है और शेष पर यथायोग्य नामधारी व्यन्तर व भवनवासी देव रहते हैं, इसके मूलभाग में पूर्व व पश्चिम दिशाओं में तमिस्र व खण्डप्रपात नाम की दो गुफायें हैं, जिनमें क्रम से गंगा व सिन्धु नदी प्रवेश करती हैं। त्रिलोकसार के मत से पूर्व दिशा में गंगा प्रवेश के लिए खण्डप्रपात और पश्चिम दिशा में सिन्धु नदी के प्रवेश के लिए तमिस्र गुफा है। इन गुफाओं के भीतर बहुमध्यभाग में दोनों तटों से उन्मग्ना व निमग्ना नाम की दो नदियाँ निकलती हैं जो गंगा और सिन्धु में मिल जाती हैं। इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र के मध्य में भी एक विजया है। कूटों व तन्निवासी देवों के नाम भिन्न है। विदेह के उन क्षेत्रों में से प्रत्येक के मध्यपूर्व पर लम्बायमान विजया पर्वत है। जिनका सम्पूर्ण वर्णन भरत विजयाध वत् है। विशेषता यह है कि यहाँ उत्तर व दक्षिण दोनों श्रेणियों में ५५-५५ नगर हैं। इनके ऊपर भी ९-९ कूट हैं, परन्तु उनके व उन पर रहने वाले देवों के नाम भिन्न हैं। सुमेरु पर्वत - विदेह क्षेत्र के बहु मध्यभाग में सुमेरु पर्वत है। यह पर्वत तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का आसनरूप माना जाता है। क्योंकि इसके शिखर पर पाण्डुकवन में स्थित पाण्डुक आदि चार शिलाओं पर भरत, ऐरावत तथा पूर्व व पश्चिम विदेहों के सर्व तीर्थंकरों का देव लोग जन्माभिषेक करते हैं। यह तीनों लोकों का मानदण्ड है तथा इसके मेरु, सुदर्शन, मन्दर आदि अनेक नाम हैं। . यह पर्वत गोल आकार वाला है। पृथ्वीतल पर १०,००० योजन विस्तार तथा ९९,००० योजन उत्सेध वाला है। क्रम से हानिरूप होते हुए इसका विस्तार शिखर पर जाकर १००० योजन रह जाता है। इसकी हानि का क्रम इस प्रकार है - क्रम से हानि रूप होता हुआ पृथ्वीतल से ५०० योजन ऊपर जाने
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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