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आराधनासमुच्चयम् २२७
से यहाँ पर एक कोस के भीतर स्थित जीव मर सकते हैं। इसके आगे शेष द्वितीयादि पृथिवियों में इसकी घातक शक्ति, आधा-आधा कोस और भी बढ़ती गई है।
कुत्ता, बिलाव, गधा और ऊँट आदि जीवों के मृत कलेवरों को इकट्ठा करने से जो दुर्गन्ध उत्पन्न होती है, वह भी इन नारकियों के शरीर की दुर्गन्ध की बराबरी नहीं कर सकती है।
स्वभावतः अन्धकार से परिपूर्ण ये नारकियों के बिल कक्षक (क्रकच), कृपाण, छुरिका, खदिर (खैर) की आग, अति तीक्ष्ण सुई और हाथियों की चिकार से अत्यन्त भयानक है। ये सब बिल अहोरात्र अन्धकार से व्याप्त हैं। उक्त सभी जन्म-भूमियाँ नित्य ही कस्तूरी से अनन्तगुणा काले अन्धकार से व्याप्त हैं। वेताल सदृश आकृति वाले महाभयानक तो वहाँ पर्वत हैं। दुःखदायक सैकड़ों यन्त्रों से व्याप्त गुफाएँ हैं। अग्निकणिका से संयुक्त लोहमयी स्त्रियों की आकृति वाली सैकड़ों प्रतिमायें (पुतलियाँ) हैं।
फरसी, छुरी, खड्ग इत्यादि शस्त्र समान यंत्रों से सहित असिपत्रवन हैं। महादुःखदायक, मायामयी शाल्मली वृक्ष हैं। खारे जल से भरी हुई और कृमिकुल से व्याप्त वैतरणी नदी है। घिनावने रुधिर से भरे हुए महादुर्गन्धित तालाब हैं। हजार बिच्छू एक साथ काटने से जो यहाँ वेदना होती है उससे भी अधिक वेदना वहाँ की भूमि के स्पर्शमात्र से होती है।
प्रथम पृथ्वी से लेकर पाँचवी पृथ्वी के तीन चौथाई भाग तक स्थित नरक बिलों में अति तीव्रउष्णता है तथा पाँचवी पृथ्वी के अवशिष्ट चतुर्थ भाग में और छठी एवं सातवीं पृथ्वी में अत्यन्त शीत रहती है।
नारकियों के उपर्युक्त चौरासी लाख बिलों में से बयासी लाख पच्चीस हजार बिल उष्ण हैं और एक लाख पचहत्तर हजार बिल अत्यन्त शीत हैं। यदि उष्ण बिलों में मेरु बराबर लोहे का शीतल पिण्ड डाल दिया जाए तो वह तल प्रदेश तक न पहुँच बीच में ही मोम के टुकड़े के समान पिघलकर नष्ट हो जायेगा। इसी प्रकार यदि मेरुपर्वत के बराबर लोहे का उष्ण पिण्ड शीत बिलों में डाल दिया जाय तो वह भी तल प्रदेश तक न पहुँचकर बीच में ही नमक के टुकड़े के समान विलीन हो जायेगा।
___ इस प्रकार अधोलोक में महाभयंकर दुःखदायी सात नरक हैं, उन नरकों में रहने वाले जीव नारकी कहलाते हैं।
जो नरों को शीत, उष्ण आदि वेदनाओं से शब्दाकुलित कर देता है, वह नरक है। अथवा पापी जीवों को आत्यन्तिक दुःख प्राप्त कराने वाले स्थान को नरक कहते हैं और उनमें रहने वाले जीव नारकी कहलाते हैं।
नरक स्थान सम्बन्धी अन्नपान आदि द्रव्य में, वहाँ के पृथिवी रूपी क्षेत्र में, नरक गति सम्बन्धी प्रथम समय से लेकर आयु पर्यन्त काल में तथा जीव के चैतन्य रूप भाव वा तत्सम्बन्धी पर्यायों में कभी रति नहीं करते हैं, अत: नारत वा नारकी कहलाते हैं।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप पाँच पापों में रत रहने वाले पापी प्राणी नरक में जन्म