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________________ आराधनासमुच्चयम् २२० तत्पश्चात् उसी स्थिति को प्राप्त होने वाले जीव के दूसरा कषाय अध्यवसाय स्थान होता है, इसके भी अनुभाग अध्यवसाय स्थान और योगस्थान पूर्वोक्त जानने चाहिए। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण कषाय अध्यवसाय स्थानों के होने तक तीसरे कषाय अध्यवसाय स्थानों में वृद्धि क्रम जानना चाहिए। जिस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति के कषायादि स्थान कहे हैं, उसी प्रकार एक समय अधिक जघन्य स्थिति के भी कषायादि स्थान जानने चाहिए । इसी प्रकार एक-एक समय अधिक के क्रम से ज्ञानावरणादि की तीस कोड़ा कोड़ी सागर और मोहनीय की सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त प्रत्येक स्थिति विकल्प के भी कषाय, अनुभाग और योग स्थान जानने चाहिए। अनन्त भाग वृद्धि, असंख्यात भाग वृद्धि, संख्यात भाग वृद्धि, संख्यात गुण वृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि, ये छह वृद्धि के स्थान हैं। इसी प्रकार हानि के भी छह स्थान हैं। इनमें से अनन्त भाग वृद्धि और अनन्त गुण वृद्धि इन दो स्थानों को छोड़ देने पर चार स्थान होते हैं। इस प्रकार सर्व मूल और उत्तर प्रकृतियों के परिवर्तन का क्रम जानना चाहिए। यह सब मिलाकर भाव परिवर्तन होता है। इस जीव ने मिथ्यादर्शन के संयोगवश प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध के कारणभूत जितने प्रकार के परिणाम वा भाव हैं उन सब का अनुभव करते हुए भाव परिवर्तन रूप संसार में अनेक बार भ्रमण किया है। इस प्रकार इस पंच प्रकार रूप संसार का चिंतन करना संसारानुप्रेक्षा है। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भवरूप पाँच प्रकार के संसार का चिंतन करने वाले इस जीव के संसार-रहित निज शुद्धात्म ज्ञान के नाशक तथा संसारवृद्धि के कारणभूत, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग में परिणाम नहीं जाते, बन्ध के ये पाँचों कारण मन्दतर हो जाते हैं तथा यह आत्मा संसारातीत सुख के अनुभव में लीन होकर निज शुद्धात्म ज्ञान के बल से संसार को नष्ट करने वाली निज निरंजन परमात्मा की भावना करता है तथा परमात्मा की भावना से कर्मों का क्षय कर स्वयं परमात्मा बन जाता है। कर्मविपाकवश आत्मा के भवान्तर की प्राप्ति ही संसार है, जिसका पहले पाँच परिवर्तन रूप से कथन किया है। चौरासी लाख योनियों और एक सौ साढ़े निन्यानवे लाख करोड़ कुलों से व्याप्त संसार में भ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयंत्र से प्रेरित होकर पिता से पुत्र भाई होता है, पुत्र होकर वहीं पौत्र हो जाता है। माता होकर भगिनी, भार्या, दासी, दास भी हो जाता है। जिस प्रकार रंगस्थल में नट नाना रूप धारण करता है, उसी प्रकार यह जीव अनेक योनि रूप नाना भेष को धारण करता है। इत्यादि रूप से संसार के स्वरूप का चिंतन करना, नरकादि चारों गतियों के दुःख का विचार करना संसारानुप्रेक्षा है। ____ लोकानुप्रेक्षा का स्वरूप जीवाद्यर्धा यस्मिन, लोक्यन्तेऽसौ निरुच्यते लोकः । सोऽधो मध्योर्ध्वभिदा त्रेधा बहुधा प्रभेदैः स्थात् ॥१५८।।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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