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आराधनासमुच्चयम् : २०७
जलबुबुदेन्द्रचापक्षणरुच्यादीनि नित्यतां नेतुम् ।
शक्यन्त देवाधन कमजनितानि वस्तूनि ॥१३९॥ अन्वयार्थ - ध्रौव्याध्रौव्याद्यात्मनि - ध्रौव्य और अध्रौव्यात्मक। अर्थे - पदार्थ में। अनेकान्तवादसंश्रयणात् - अनेकान्तवाद के आश्रय से । पाते - बिना | वक्तुः - वक्ता की। विवक्षायां - विवक्षा में। नष्टं - नष्ट (अध्रुव)। रूपं - रूप। न - नहीं। घटते - घटित होता है। भुवनत्रितये . तीन लोक में। यानि - जितनी। पुण्योदर्कजवस्तूनि - पुण्योदय से उत्पन्न वस्तुएँ हैं। तानि - वे। सर्वाणि - सारी वस्तुएँ। अनिलाहतदीपशिखावत् - वायु से आहत दीपशिखा के समान । अनित्यानि - अनित्य हैं। इन्द्रादिनिलिम्पानां - इन्द्रादिदेवों की। अष्टगुणैश्वर्यसंयुता - अष्टगुण और ऐश्वर्य से संयुत । अशेषा: - सारी। सम्पत् - सम्पदा । शारदशुभ्रादभ्रामोत्करविभ्रमनिभा - शरदऋतु के श्वेत बादल के समूह के विभ्रम के समान हैं।
__ अनेकभोगबलकलिता - अनेक प्रकार के भोगों से व्याप्त । रत्ननिधिनिवहपूर्णा - चौदह रत्न और नवनिधि के समूह से परिपूर्ण। चक्रधरादिनराणां - चक्रवर्ती आदि मनुष्यों की। सम्पत्तिः - सम्पदा करीन्द्रकर्णाग्रवत् - हाथी के कर्ण के अग्रभाग के समान । चपला - चंचल है।
रूपं - सौन्दर्य । कान्तिः - कान्ति। तेजः - तेज। यौवनसौभाग्यभाग्यं - युवावस्था, सौभाग्य, भाग्य । आरोग्यं - नीरोगता। विभ्रमविलासलावण्यादिकं - विभ्रम, विलास, लावण्यादिक । अचिरांशुलसनिभम् - बिजली के समान क्षणिक हैं।
____ आत्मनि - आत्मा में। एकीभूतः - एकक्षेत्रावगाही होकर रहने वाला । कायः - शरीर। अपि - भी। अमरेन्द्रचापवत् - इन्द्रधनुष के समान । सहसा - अकस्मात् । प्रविलीयते - नष्ट हो जाता है। कर्मकृतं - कर्मों के उदय से प्राप्त । अन्यत् - शरीर से भिन्न अन्य पुत्र-पौत्र-धन-धान्यादि। किं - क्या। नित्यं - नित्य, स्थिर। दृश्यते - देखे जाते हैं - क्या स्थिर रह सकते हैं, अपितु नहीं रह सकते।
जलबुबुदेन्द्रचापक्षणरुच्यादीनि - जल का बुबुदा, इन्द्रधनुष बिजली आदि। तथा कर्मजनितानि - कर्मों के उदय से प्राप्त होने वाली। वस्तूनि - वस्तुएँ। देवाद्यैः - देवादि के द्वारा भी। नित्यता - नित्यता को। नेतुं - प्राप्त कराने के लिए। न शक्यते - शक्य नहीं।
अर्थ - तीन लोक में जीवादि छह द्रव्य हैं। वे सर्व नित्य और अनित्यात्मक हैं अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक हैं। न तो कूटस्थ नित्य हैं और न सर्वथा क्षणिक हैं, अपितु कथंचित् नित्य हैं, कथंचित् अनित्य हैं अर्थात् वस्तु नित्यानित्यात्मक है। अत: अनेकान्त के आश्रय बिना वक्ता की विवक्षा में वस्तु अध्रुव सिद्ध नहीं हो सकती । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा वस्तु नित्य है, परन्तु जब वक्ता पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा कथन करता है तो सर्व पदार्थ अनित्य हैं। अनित्य भावना में पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा विचार किया जाता है, क्योंकि दृष्टिगोचर होने वाली क्षणिक पर्यायों में व्यामोह करने वाला प्राणी उनको नित्य मानकर मदोन्मत्त हो रहा है, संसार, शरीर व भोगों में मग्न होकर स्वरूप को भूल रहा है। उनको