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________________ आराधनासमुच्चयम्. २०६ अर्थात् बारह प्रकार के कहे गये तत्त्व का पुन:- पुन: चिंतन करना या शरीर आदि के स्वभाव का बारबार चिंतन करना अनुप्रेक्षा है। बारह भावनाओं का नाम-निर्देश अध्रौव्याशरणैकत्वान्यत्वकमाजवंजवीलोकोऽ शचितानवसंवरणं निर्जरणं धर्मबोधिं च ध्येयम् ॥१३२॥ अन्वयार्थ - अध्रौव्याशरणैकत्वान्यत्वकं - अध्रुव (अनित्य), अशरण, एकत्व, अन्यत्व । आजवंजवी - संसार। लोक: - लोक । अशुचितानवसंवरणं - अशुचि, आम्रव, संवर। निर्जरणं - निर्जरा । च - और। धर्मबोधिं - धर्म और बोधि, इन १२ भावनाओं का। ध्येयं - चिंतन करना चाहिए। अर्थ - अध्रुव (अनित्य), अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, आम्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ थे ५२ भावनाएं का अनुप्रेक्षा है। संस्थानावेधय धर्म ध्यान में इनका बार-बार चिंतन करना चाहिए। किसी बात का पुनः-पुन: चिंतन करते रहना अनुप्रेक्षा है। जैनागम में १२ भावनाएँ प्रसिद्ध हैं, इनको बारह वैराग्य भावना भी कहते हैं। इनका चिंतन करने से संसारी प्राणी शरीर और भोगों से निवृत्त होकर साम्य भाव में स्थित होता है। अध्रुव भावना का लक्षण ध्रौव्याध्रौव्याद्यात्मन्यर्थेऽनेकान्तवादसंश्रयणात्। नर्ते घटते नष्टं रूपं वक्तुर्विवक्षायाम् ।।१३३॥ भुवनत्रितये पुण्योदर्कजवस्तूनि यानि दृश्यन्ते। तान्यनिलाहतदीपशिखावत्सर्वाण्यनित्यानि ॥१३४॥ इन्द्रादिनिलिम्पानामष्टगुणैश्वर्यसंयुता संपत्। शारदशुभ्रादभ्राभ्रोत्करविभ्रमनिभाशेषाः ॥१३५ ।। चक्रधरादिनराणां सम्पत्तिरनेकभोगबलकलिता । रत्ननिधिनिवहपूर्णा करीन्द्रकर्णाग्रवच्चपला ||१३६ ॥ रूपं कान्तिस्तेजो यौवनसौभाग्यभाग्यमारोग्यम् । विभ्रमविलासलावण्यादिकमचिरांशुलसनिभम् ॥१३७॥ आत्मन्येकीभूतः कायोऽप्यमरेन्द्रचापवत्सहसा । प्रविलीयते किमन्यत् कर्मकृतं दृश्यते नित्यम् ॥१३८ ॥
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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