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आराधनासमुच्चयम् - २०४
के सभी कारणों का विच्छेद को जाने को, ३. आप के समय में कमरज से रहित निर्मल दशा को प्राप्त होकर सिद्ध हो जाता है अर्थात् निकल परमात्मा बन जाता है।
इस प्रकार गुणस्थान अथवा आत्म-विकास के विभिन्न सोपानों में भाव, लेश्या, योग, कर्मोदय, बंध-व्युच्छित्ति, सत्त्व-व्युच्छित्ति आदि सभी कारणभूत होते हैं। गुणस्थानों के विकास में कर्मों के क्षयादि को जो कारण रूप से कहा गया है, वह कर्म क्या वस्तु है ? किस द्रव्य की पर्याय है ? यह जानना आवश्यक
इस प्रकार गुणस्थान क्रम से कर्मप्रकृतियों, बन्ध-व्युच्छित्ति, उदय-व्युच्छित्ति, सत्ता-व्युच्छित्ति आदि के द्वारा कर्मों के नाश का (अभाव) चिंतन करना अपाय विचय है।
अथवा - मिथ्यादृष्टि जीव जन्मान्ध पुरुष के समान सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से विमुख होते हैं, उन्हें सन्मार्ग का परिज्ञान न होने से वे मोक्षार्थी पुरुषों को दूर से त्याग देते हैं, इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का चिन्तन करना। ये प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र से कैसे दूर होंगे', इस प्रकार निरंतर चिन्तन करना अपायविचय धर्मध्यान है। मन, वचन और काय इन तीनों योगों की प्रवृत्ति ही प्राय: संसार का कारण है, सो इन प्रवृत्तियों का मेरे अपाय अर्थात् त्याग किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकार शुभलेश्या से अनुरंजित जो चिन्ता का प्रबन्ध है, वह अपायविचय नाम का धर्म्यध्यान माना गया है।
विपाकविचय धर्म ध्यान का लक्षण दुरितानां तु शुभाशुभभेदानां पाकजातसुखदुःखभेदप्रभेद-चिन्ताविपाक विचयाख्य धर्म्य तु ॥१२९ ।। तीर्थकृदिन्द्ररथाङ्गभृदादिसुखं पुण्यकर्मसंपाकः ।
नारकतिर्यक्नृणां दुःखं दुष्कर्मपाकस्तु॥१३०॥ अन्वयार्थ - शुभाशुभभेदानां - शुभ और अशुभ भेद वाले। दुरितानां - कर्मों के। पाकजातसुखदुःख-भेदप्रभेदचिन्ता - पाक (उदय) से उत्पन्न सुख-दुःख के भेद-प्रभेदों की चिन्ता। विपाकविचयाख्यधर्म्य - विपाक विचय नामक धर्म ध्यान है।
पुण्यकर्मसंपाक: - पुण्य कर्म का विपाक । तीर्थकृदिन्द्ररथांगभृदादिसुखं - तीर्थंकर, इन्द्रपद, चक्रवर्ती आदि सुख । तु - और । दुष्कर्मपाक: - दुष्कर्मों का विपाक । नारकतिर्यक्नृणां - नारक, तिर्यंच और मनुष्यों के । दुःखं - दुःख प्राप्त होते हैं।
अर्थ - शुभ और अशुभ के भेद से कर्म दो प्रकार के होते हैं।
शुभ परिणामों से जिनका अनुभाग अधिक पड़ता है वे पुण्य प्रकृति हैं और अशुभ परिणामों से जिनका अनुभाग अधिक पड़ता है वे पाप प्रकृति हैं। पुण्य प्रकृति बयालीस हैं। उनके नाम हैं - तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु । शुभ नाम के सैंतीस भेद हैं। यथा-मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, पाँच शरीर,