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आराधनासमुच्चयम् २०३
- इस प्रकार अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में कर्मों की असंख्यात-गुणी निर्जरा करता हुआ अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान को प्राप्त होता है। वहाँ पर भी अपूर्वकरण के समान स्थिति-कांडघातपूर्वक असंख्यात-गुणी कर्मनिर्जरा करता हुआ असंख्यात समय व्यतीत करके जब इस गुणस्थान का संख्यातवाँ भाग शेष रहता है, तब स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, नरकगति, तिर्यंचगति, एके न्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन १६ प्रकृतियों का क्षय (सत्ताव्युच्छित्ति) करता है। तदनन्तर एक अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण रूप क्रोध, मान, माया और लोभ रूप, आठ प्रकृतियों की सत्ता-व्युच्छित्ति होती है। इसके अनन्तर एक अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर नपुंसकवेद का क्षय करता है। एक और अन्तर्मुहूर्त के बाद स्त्रीवेद का क्षय करता है। इसके बाद हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा रूप छह नोकषायों का क्षय करता है। तदनन्तर पुरुषवेद का क्षय करता है। पुन: अन्तर्मुहूर्त के बाद संज्वलन क्रोध का और इसी क्रम से संज्वलन मान एवं संज्वलन माया का क्षय करता है। इस प्रकार इन ३६ प्रकृतियों का क्षय नवम गुणस्थान में होता है।
तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्म साम्पराय नामक दसवें गुणस्थान को प्राप्त होकर, संज्वलन लोभ का क्षय करके क्षीणकषाय नामक १२वें गुणस्थान को प्राप्त होकर, सर्वप्रथम निद्रा और प्रचला, इन दोनों का एक साथ क्षय करके, अन्तर्मुहर्त में पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय और चार दर्शनावरण इन १४ कर्मप्रकृतियों का युगपत् (एक साथ) क्षय करता है अर्थात् कुल १६ प्रकृतियों का नाश करता है।
देव, नरक, तिर्यञ्च आयु का जिसने बंध कर लिया है, वह क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ नहीं हो सकता। इसलिए इन तीनों प्रकार के आयुबंध का क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने के पूर्व स्वयमेव क्षय हो जाता है। इस प्रकार इन ६३ प्रकृतियों की सत्ता व्युच्छित्ति करके यह आत्मा अरहंत अवस्था (१३वें गुणस्थान) को प्राप्त होता है वा सकल परमात्मा बन जाता है। इस गुणस्थान में इस भव की आयु के अनुरूप रहता है। आयु पूर्ण होने पर अन्त में सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाती शुक्लध्यान के द्वारा योगनिरोध करके, १४वें गुणस्थान को प्राप्त होकर द्विचरम समय में (अन्त समय के पहले का समय) साता या असाता वेदनीय, देवगति, पाँच शरीर, पाँच संघात, पाँच बन्धन, छह संस्थान, तीन अंगोपांग, छह संहनन, पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्त-विहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ-अशुभ, दुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, अनादेय अयशस्कीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र, इन बहत्तर (७२) प्रकृतियों का क्षय करता है। इसके पीछे अपने जीवनकाल के अन्तिम समय में दोनों वेदनीय में से उदयागत कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वी, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थकर और उच्च गोत्र, इन तेरह (१३) प्रकृतियों का क्षय करता है अथवा मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी के साथ अयोगकेवली तीर्थंकर के द्विचरम-समय में तेहत्तर (७३) प्रकृतियों का और चरम समय में बारह (१२) प्रकृतियों का इस प्रकार ८५ प्रकृतियों का क्षय करता है। इस प्रकार संसार-भ्रमण