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आराधनासमुच्चयम् १५१
छेदोपस्थापन । प्रमत्तमुख्येषु - प्रमत्त गुणस्थान जिनमें मुख्य है ऐसे। चतुर्यु - चार (प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण)। गुणस्थानेषु - गुणस्थानों में। स्यातां - होता है। परिहारार्द्धिः - परिहारविशुद्धि संयम । प्रमत्ताधयो: - प्रमत्तगुणस्थान को आदि लेकर। द्वयोः - प्रमत्त, अप्रमत्त दो गुणस्थानों में। एव - ही, होता है।
आद्यचरित्रद्वितयं - आदि के दो चारित्र । हि - निश्चय से। उपशममिश्रक्षयः - औपशमिक - क्षायोपशमिक और क्षायिक भावों से । भवेत् - होता है। मध्यं - परिहारविशुद्धिचारित्र । क्षायोपशमिक - क्षायोपशभिक है। च - और। अन्त्यं - अन्त के। द्वितीयं - दो सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात। उपशमक्षयभवं - उपशमभाव और क्षायिक भाव से उत्पन्न होता है। तु - परन्तु। अन्यत् - इन पाँचों चारित्रों से भिन्न । देशचरित्रं - देशचारित्र । क्षायोपशमिकं - क्षायोपशमिक है वह 1 पंचमे - पंचम । गुणे - गुणस्थान में ही होता है। अविरतिका - अविरति (असंयम भाव)। औदयिकी - औदयिक भाव से होती है, यह । नानापरिणामे - नाना परिणाम वाले। गुणचतुष्टये - चार गुणस्थानों में होती है।९५९७॥
अर्थ - आदि के सामायिक और छेदोपस्थापनाचारित्र, प्रमत्त छठागुणस्थान जिनमें मुख्य है, ऐसे चार गुणस्थानों में होते हैं अर्थात् सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापना चारित्र छठे, सातवें, आठवें और नवें गुणस्थान तक होते हैं। ये दोनों एक साथ रहते हैं, कभी ये दोनों पृथक्-पृथक् नहीं रहते हैं। क्योंकि इन दोनों में अंग-अंगीभावपना है।
अभेद रूप कथन सामायिक चारित्र है और उस महाव्रत आदि का भेदरूप कथन करना छेदोपस्थापना चारित्र है। पंच महाव्रत आदि को धारण किये बिना सामायिक चारित्र नहीं होता और अभेद रत्नत्रय रूप सामायिक चारित्र के बिना छेदोपस्थापना चारित्र नहीं होता। इनमें सामायिक चारित्र निश्चयनय का विषय है और छेदोपस्थापना व्यवहार नय का विषय है। ये दोनों नय परस्पर सापेक्ष हैं। अत: ये दोनों चारित्र परस्पर सापेक्ष हैं - इनमें स्वामी, काल, गुण, स्थान और भाव-कृत भेद नहीं है।
परिहारविशुद्धि संयम, प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में ही होता है। इस संयम में प्रतिदिन संध्याकाल को छोड़कर दो गन्यूति प्रमाण विहार करना परमावश्यक है, परन्तु ऊपर के गुणस्थानों में गमनागमन है ही नहीं अत: इन दो गुणस्थानों में ही होता है। यह चारित्र भी सामायिक, छेदोपस्थापना चारित्र के साथ रहता है अकेला नहीं। यह चारित्र इन दोनों चारित्रों के फल-स्वरूप ऋद्धि है।
___ आदि के दो चारित्र सामायिक और छेदोपस्थापना औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनों भावों के साथ होने से तीन प्रकार भाव वाले हैं।
चारित्र का उत्पादन चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम से होता है।
छठे-सातवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय का क्षयोपशम होता है इसलिए ये दोनों चारित्र क्षायोपशमिक हैं। जब मुनिराज उपशम श्रेणी पर आरूढ़ होते हैं, तब ये दोनों चारित्र औपशमिक भाव से