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आराधनासमुण्चयम् १४८
पाँच समिति, तीन गुप्तियों से युक्त होकर सदा ही सर्व सावध योग का परिहार करना तथा पाँच यमरूप भेद संयम (छेदोपस्थापना) को तथा एक यमरूप अभेद संयम (सामायिक) को धारण करना परिहारविशुद्धि संयम है और उसका धारक साधु परिहारविशुद्धिसंयत कहलाता है।
सामायिक और छेदोपस्थापना संयम की विशुद्धि से ही परिहार विशुद्धिसंयम नाम की ऋद्धि उत्पन्न होती है।
सामायिक छेदोपस्थापना के जघन्य, मध्यम और उत्तम तीन भेद होने से इस संयम के भी तीन भेद हैं तथा भिन्न-भिन्न साधुओं के परिणामों के भेद से संख्यात और असंख्यात भेद हैं। परिहारविशुद्धि संयम प्रतिपाती भी है अर्थात् संक्लेश परिणाम तथा सम्यग्दर्शन से च्युत हो जाने पर यह छूट भी जाता है।
जो मुनिराज निर्विकल्प समाधि में लीन रहने के लिए समर्थ नहीं हैं, परन्तु प्राणिवधभय से भयभीत हैं, संक्लेश परिणामों से रहित हैं, ऐसे मुनिराज परिहारविशुद्धि संयम वाले होते हैं।
इन परिहारविशुद्धि संयम वालों की सारी समाचार विधि सामायिक छेदोपस्थापना चारित्र के समान है, परन्तु ये किसी को निर्देश नहीं देते हैं।
स्वकीय साधर्मियों के अतिरिक्त किसी के साथ आदान-प्रदान, वन्दन, अनुभाषण आदि सारे व्यवहारों का त्याग करते हैं, परन्तु परिहारविशुद्धि संयम वाला जो आचार्यपद में प्रतिष्ठित है, वह इन व्यवहारों का त्याग नहीं करता है।
जो आचार्यपद में प्रतिष्ठित नहीं है ऐसे परिहारविशुद्धि संयम वाले मुनि धर्मकार्यों में आचार्य से अनुज्ञा लेना, विहार में मार्ग पूछना, वसतिका के स्वामी से आज्ञा लेना, योग्य - अयोग्य उपकरणों के लिए निर्णय करना तथा किसी का सन्देह दूर करने के लिए उत्तर देना, इन कार्यों के अतिरिक्त मौन से रहते हैं। शरीर के अंगों को पीछी से पोंछने की क्रिया नहीं करते क्योंकि इनके शरीर से किसी जीव की विराधना नहीं होती है।
वेदना आने पर उसका प्रतिकार नहीं करते हैं। उपसर्ग आने पर स्वयं दूर करने का प्रयत्न नहीं करते हैं, परन्तु कोई दूसरा दूर करता है तो मौन रखते हैं।
एक साथ चार-पाँच साधुओं को परिहारविशुद्धि संयम हो सकता है। उनमें से जिसको पहले परिहारविशुद्धि होती है वे आचार्य कहलाते हैं और शेष पीछे से इस संयम को प्राप्त करने वाले अनुपहारक कहलाते हैं।
मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम, प्रथमोपशम सम्यक्त्व और आहारक, आहारक अंगोपांग, इन चारों में से किसी एक के होने पर शेष तीन मार्गणाएँ नहीं होती।
परिहारविशुद्धि संयत के तैजस समुद्घात और आहारक समुद्घात ये दो पद नहीं होते।