SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधनासमुच्चयम् १४५ अन्वयार्थ - त्रिविधसंकल्पसमन्वितसूक्ष्मासंख्येयलोकपरिणामैः - मन, वचन, काय के त्रिविध विकल्पों से युक्त सूक्ष्म असंख्यातलोक परिणामों के द्वारा । ते - उन दोनों चारित्रे - सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र । नित्यं नित्य । व्यतिरेकाभावत: - व्यतिरेक का अभाव होने से। सदृशे समान हैं। - अर्थ - यद्यपि सामायिक और छेदोपस्थापना रूप दो प्रकार के चारित्र का कथन किया है, परन्तु दोनों प्रकार के चारित्र मन, वचन, काय कृत सूक्ष्म असंख्यात लोक परिणामों के साथ होने से दोनों में व्यतिरेक (पृथक्पने) का अभाव है। " सम्पूर्ण भेद रूप व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एक यम को ग्रहण करने वाला होने से सामायिक चरित्र द्रव्यार्थिक नय का कथन है और उस सर्वसावद्ययोगनिवृत्ति एक व्रत को पाँच या अनेक प्रकार के भेद करके ग्रहण करने वाला होने से छेदोपस्थापना चारित्र पर्यायार्थिक नय का विषय है। यहाँ पर तीक्ष्ण बुद्धि वाले मनुष्यों का अनुग्रह करने के लिए द्रव्यार्थिक नय का उपदेश दिया गया है और मन्दबुद्धि प्राणियों का अनुग्रह करने के लिए पर्यायार्थिक नय का उपदेश दिया गया है। इसलिए इन दोनों प्रकार के चारित्र में अनुष्ठान कृत कोई विशेष भेद नहीं है क्योंकि जो सामायिक चारित्र वाले जीव हैं, वे ही छेदोपस्थापना वाले जीव हैं तथा जो छेदोपस्थापना वाले जीव हैं, वे ही सामायिक शुद्धि संयत हैं । ' जैसे पर्याय को छोड़कर द्रव्य नहीं है और द्रव्य को छोड़कर पर्याय नहीं है दोनों एक साथ हैं तन्मय रूप हैं, उसी प्रकार सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापना चारित्र पृथक्-पृथक् नहीं हैं। छेदोपस्थापना चारित्र अंग है और सामायिक चारित्र अंगी है। - पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ये चारित्र के १३ अंग हैं। इन अंगों का भेदरूप कथन करते हैं तो छेदोपस्थापना चारित्र कहलाता है और अंगों का भेद रूप कथन न करके अंगी का कथन किया जाता है तो सामायिक चारित्र कहलाता है। अतः अंग को छोड़कर अंगी और अंगी को छोड़कर अंग नहीं रहता है। यद्यपि दीक्षा ग्रहण करते समय साधु पूर्णतया साम्यभाव रूप रहने की प्रतिज्ञा करता है, परन्तु पूर्ण निर्विकल्पता में अधिक समय तक टिकने का सामर्थ्य न होने से व्रत, समिति, गुप्ति आदि रूप व्यवहार चारित्र तथा क्रियानुष्ठानों में अपने आप को स्थापित करता है। पुनः कुछ समय पश्चात् अवकाश पाकर समता में पहुँच जाता है और पुनः परिणामों के गिरने पर विकल्पों में उलझ जाता है। जब तक चारित्रमोह का उपशम वा क्षय नहीं करता तब तक इसी प्रकार झूले में झूलता रहता है। यहाँ पर निर्विकल्प अभेदात्मक वा साम्यभाव चारित्र का नाम सामायिक है या निश्चय चारित्र है और सविकल्प भेदात्मक चारित्र का नाम छेदोपस्थापना या व्यवहार चारित्र है। १. धवला १ / १.१.१२३
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy