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________________ आराधनासमुच्चयम् १३८ प्रतिष्ठापन समिति एकान्त स्थान, अचित्त स्थान, दूर, छिपा हुआ, बिल तथा छेदरहित, चौड़ा और जिसकी निन्दा व विरोध न हो, ऐसे स्थान में मूत्र, विष्ठा आदि देह के मल का क्षेपण करना प्रतिष्ठापना समिति कही गयी है। · दावाग्नि से दग्ध प्रदेश, हल से जुता हुआ प्रदेश, मसान भूमि का प्रदेश, खारसहित भूमि, लोग जहाँ रोकें नहीं ऐसा स्थान, विशाल स्थान, त्रस जीवों से रहित स्थान, जनरहित स्थान ऐसी जगह मूत्रादि का त्याग करे। विष्ठा, मूत्र, कफ, नाक का मैल आदि को हरे तृण आदि से रहित प्रासुक भूमि में अच्छी तरह देखकर निक्षेपण करे। रात्रि में आचार्य के द्वारा देखे हुए स्थान को आप भी देखकर मूत्रादि का क्षेपण करे। यदि वहाँ सूक्ष्म जीवों की शंका हो तो आशंका की विशुद्धि के लिए कोमल पीछी को लेकर हथेली से उस जगह को देखे । यदि पहला स्थान अशुद्ध हो तो दूसरा, तीसरा आदि स्थान देखे। किसी समय रोगपीड़ित होने पर अथवा शीघ्रता से अशुद्ध प्रदेश में मल छूट जाये तो उस धर्मात्मा साधु को प्रायश्चित्त न दें। कहे हुए क्रम से प्रतिष्ठापना समिति का वर्णन किया गया है उसी क्रम से त्यागने योग्य मल- - मूत्रादि को उक्त स्थण्डिल स्थान में निक्षेपण करे। उसी के प्रतिष्ठापना समिति शुद्ध है। जहाँ स्थावर या जंगम जीवों की विराधना न हो, ऐसे निर्जन्तुस्थान में मल-मूत्र आदि का विसर्जन करना और शरीर का रखना प्रतिष्ठापन समिति है। प्रतिष्ठापन शुद्धि में तत्पर संयत देश और काल को जानकर नख, रोम, नाक, थूक, वीर्य, मल, मूत्र या देह परित्याग में जन्तुबाधा का परिहार करके प्रवृत्ति करता है। शरीर व जमीन पिच्छिका से न पोंछना, मल-मूत्रादिक जहाँ क्षेपण करना है वह स्थान न देखना इत्यादि प्रतिष्ठापना समिति के अतिचार हैं। यह व्यवहार समिति का कथन किया है। निश्चयसमिति : निश्चय नय से तो अपने स्वरूप में सम्यग् प्रकार से गमन अर्थात् परिणमन समिति है । निश्चयनय की अपेक्षा अनन्त ज्ञानादि स्वभावधारक निज आत्मा है, उसमें 'सम्' भले प्रकार अर्थात् समस्त रागादि भावों के त्याग द्वारा आत्मा में लीन होना, आत्मा का चिन्तन करना, तन्मय होना आदि रूप से जो अयन (गमन) अर्थात् परिणमन सो समिति है। अभेद अनुपचार रत्नत्रयरूपी मार्ग पर परमधर्मी ऐसे (अपने) आत्मा के प्रति सम्यग् इति (गति) अर्थात् परिणति वह समिति है, अथवा निज परम तत्त्व में लीन सहज परम ज्ञानादिक परमधर्मों की संहति ( मिलन, संगठन) वह समिति है । गुप्ति - सम्यक् प्रकार से मन, वचन, काय रूप तीन योगों का निरोध करना, योगों की स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति है। इसमें विषयसुख की अभिलाषा के लिए की जाने वाली प्रवृत्तियों का निषेध करने के लिए सम्यक् विशेषण दिया गया है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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