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________________ आराधनासमुच्चयम् १३६ त्याग करना परिग्रहत्याग महाव्रत है। गुरुओं के भी गुरु महान् पुरुष जिनकी साधना करते हैं, जिनका पालन करते हैं, वृषभादि महावीर पर्यन्त तीर्थङ्करों, वृषभसेनादि गौतम जम्बूपर्यन्त गणधरों, महापुरुषों के द्वारा जो आचरित है, प्रतिपालित है, अर्थात् तीर्थङ्करों ने, गणधरों ने और आचार्यों आदि महापुरुषों ने पूर्व में जिनका आचरण किया है और जो स्वयं महान् हैं इसलिए इनको महाव्रत कहते हैं। महान् जो व्रत वे महाव्रत कहलाते प्रत्येक प्राणी की पाँच प्रकार की क्रिया होती है। उनको सावधानीपूर्वक करना, आगमानुसार क्रियाओं में प्रवृत्ति करना समिति है अर्थात् सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करने का नाम समिति है। ___ व्यवहार-निश्चय के भेद से समिति दो प्रकार की है। जिनेन्द्र भगवान ने संयम की शुद्धि करने के लिए व्यवहार नय से ईर्यासमिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान निक्षेपण समिति और व्युत्सर्ग समिति के भेद से पाँच प्रकार की समिति कही है। सम्यक् प्रकार से होने वाली प्रवृत्ति का नाम समिति है। एकाग्रता से प्राणी-पीड़ा का परिहार करते हुए गमन, वचन, भोजन, आदान-निक्षेपण और मलमूत्र के त्याग में सावधानी रखना समिति है। सम् - सम्यक्प्रकार से इतः - गमन, प्रवृत्ति करना समिति है। ईर्यासमिति - वि में नहार हा माण देखार अपने कार्य के लिए प्राणियों को पीड़ा नहीं देते हुए संयमी का जो गमन है वह ईर्या समिति है। मार्ग, नेत्र, सूर्य का प्रकाश, ज्ञानादि में यत्न, देवता आदि आलम्बन - इनकी शुद्धता से तथा प्रायश्चित्तादि सूत्रों के अनुसार गमन करते मुनि के ईयर्यासमिति होती है। शीत और उष्ण जन्तुओं को बाधा न हो इसलिए शरीर प्रमार्जन करना चाहिए तथा सफेद भूमि या लाल रंग की भूमि में प्रवेश करना हो अथवा एक भूमि से निकल कर दूसरी भूमि में प्रवेश करना हो तो कटिप्रदेश से नीचे तक सर्व अवयव पिच्छिका से प्रमार्जित करना चाहिए। ऐसी क्रिया न करने से विरुद्ध योनि संक्रमण से पृथ्वीकायिक जीव और त्रसकायिक जीवों को बाधा होगी। जल में प्रवेश करने से पूर्व साधु हाथ-पाँव वगैरह अवयवों में लगे हुए सचित्त और अचित्त धूलि को पीछी से दूर करे । अनन्तर जल में प्रवेश करे। जल से बाहर आने पर जब तक पाँव न सूख जावें, तब तक जल के समीप ही खड़ा रहे ।पाँव सूखने पर विहार करे। बड़ी नदियों को उलांघने का कभी अवसर आवे तो नदी के प्रथम तट पर सिद्ध वंदना कर, समस्त वस्तुओं आदि का प्रत्याख्यान करे। मन में एकाग्रता धारण कर नौका वगैरह पर आरूढ़ होवे। दूसरे तट पर पहुँचने के अनन्तर अतिचार नाशार्थ कायोत्सर्ग करे। प्रवेश करने पर अथवा वहाँ से बाहर निकलने पर यही आचार करना चाहिए। जो गीली है, हरे तृण आदि से व्याप्त है, ऐसी पृथ्वी पर गमन नहीं करना चाहिए। मार्ग में गदहा, ऊँट, बैल, हाथी, घोड़ा, भैंसा, कुत्ता और कलह करने वाले लोगों का दूर से ही त्याग करे। रास्ते में जमीन से समानान्तर फलक पत्थर वगैरह चीज हो अथवा दूसरे मार्ग में प्रवेश करना
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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