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आराधनासमुच्चयम् १३४
दर्शन प्रतिमा वाले को अरणी पुष्प, सौभाञ्जनपुष्प, करीर पुष्प और कचनार पुष्प इन फूलों का भक्षण नहीं करना चाहिए तथा आल, गाजर, मली, लहमन, प्याज, सकरकन्द, मिश्रीकन्द तथा गीली हल्दी, अदरक, पालिका, पधिनीकन्द, लशुन, तुम्बीफल, कुशुभशाक, तरबूज, सूरणकन्द, लवण, तेल, घृत आदि में मिश्रित आँवला आदि के बने हुए आचार, नवनीत आदि पदार्थों के भक्षण करने का त्याग करना चाहिए तथा मांसादि सेवन करने वालों के बर्तनों का उपयोग नहीं करना चाहिए। १६ प्रहर के उपरान्त के दही-छाछ, जिसमें सिंवाल आ गये हैं, जो चलितरस है, जिसका रूप-रस विकृत हो गया है ऐसी वस्तु को तथा कच्चे दूध के बने दही, छाछ के साथ द्विदल मूंग, चना आदि अन्न नहीं खाना चाहिए।
दर्शन प्रतिमा वाले के लिए अन्तराय भी पालन करना पड़ता है, जैसे अस्थि (हड्डी), शराब, चमड़ा, मांस, रक्त, पूय, मल, मूत्र और मरे हुए प्राणी के शरीर को देखकर एवं त्याग की हुई वस्तु यदि भूल से सेवन करे या खाने में आ जाय तो भोजन छोड़ देना चाहिए।
चाण्डाल, ऋतुवती स्त्री, सुअर आदि को देखकर तथा उनकी आवाज सुनकर अन्तराय करना चाहिए । रात्रि में रोग दूर करने के लिए भी दुग्ध, पानी, औषधि कुछ भी सेवन नहीं करना चाहिए। पानी को छानकर काम में लेना चाहिए और जिस जलाशय का पानी है बिनछानी को उसी जलाशय में पहुँचाना चाहिए। क्योंकि अष्टमूलगुण धारण नहीं करने, सप्त व्यसन सेवन करने, अभक्ष्य भक्षण करने तथा अन्तराय आदि उपर्युक्त क्रियाओं का पालन नहीं करने से सम्यग्दर्शन मलिन होता है। इस प्रकार जिसका सम्यग्दर्शन शुद्ध है, जो संसार, शरीर और पंचेन्द्रियजन्य विषयवासनाओं से विरक्त है तथा पंचपरमेष्ठी के चरण ही जिसकी शरण हैं, वह दर्शनप्रतिमाधारी अथवा दार्शनिक श्रावक कहलाता है।
(२) व्रत प्रतिमा - जो दर्शन प्रतिमा की क्रिया के साथ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का निरतिचार पालन करता है, वह व्रतिक श्रावक कहलाता है।
(३) सामायिक प्रतिमा - तीनों संध्याओं के समय मन, वचन और काय को शुद्ध कर जिनमन्दिर में अथवा अपने घर में जिनबिम्ब के सम्मुख या अन्य पवित्र स्थान में पूर्व दिशा अथवा उत्तर दिशा में मुख करके जिनधर्म, जिनवाणी, जिनबिम्ब, जिनालय और पंच परमेष्ठी की वन्दना करता है; जिसमें चार आवर्तन, तीन शिरोनति और दो नमस्कार कर देववन्दना करता है, अपनी आत्मा का ध्यान करता है वह सामायिक प्रतिमा है।
(४) प्रोषध प्रतिमा - प्रोषध का अर्थ एक बार भोजन करना है और चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास कहलाता है। जो एकासन (एक बार भोजन) करके उपवास करता है, उसे प्रोषधोपवास कहते हैं अथवा प्रोषध का अर्थ पर्व है और जिसमें पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से विमुख होकर रहती हैं उसे उपवास कहते हैं। सामी और त्रयोदशी के दिन एकाशन अथवा नीरस भोजन करना प्रोषध प्रतिमा कहलाती है। प्रोषध के दिन पाँचों पापों का, अलंकार, आरम्भ आदि का त्यागकर शारूवाचन, धर्मकथाश्रवण, ध्यान आदि में समय व्यतीत करना चाहिए।