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________________ आराथनासमुच्चयम् ११६ अथवा - एक धर्म जिसका विषय नहीं है, उसको नैगम नय कहते हैं। अर्थात् संग्रह और असंग्रह रूप द्रव्यार्थिक नय का विषय करने वाला नैगम नय है। "अन्योन्यगुणप्रधानभूतेन भेदाभेदप्ररूपणो नैगम:' धर्म और धर्मी में एक को गौण और दूसरे को प्रधान करके वस्तु का कथन करने वाला नैगम नय कहलाता है। जैसे सुख जीव का गुण है, इस प्रकार के कथन में सुख की विशेषता होने से जीव की अपधानता है और सुख की प्रधानता है क्योंकि जीव सुख का विशेष है। सुखी जीव है, इसमें जीव विशेष्य है और सुखी उसका विशेषण है। इसलिए जीव प्रधान है और सुख गौण है। इस प्रकार नैगमनय विशेष्य विशेषण में एक को गौण और एक को मुख्य करके वर्णन करता है, तो भी इस नय में प्रमाणपने का प्रसंग नहीं आता है क्योंकि प्रमाण में धर्म और धर्मी की प्रधानता की ज्ञप्ति की असम्भवता है। अर्थात् प्रमाण एक को प्रधानता और एक को गौणता से ग्रहण नहीं करता है। धर्म और धर्मी की प्रधानता और गौणता का तो अनुभव नैगम नय से ही किया जाता है तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक द्रव्य का प्रधानता से अनुभव करने वाले विज्ञान को प्रमाण जानना चाहिए। निगम अर्थात् लोकरूढ़ि वा लौकिक संस्कार से उत्पन्न हुई कल्पना को नैगम नय कहते हैं। जैसे चैत्र शुक्ला त्रयोदशी आने पर कहना कि आज भगवान महावीर का जन्मदिन है। वास्तव में, भगवान महावीर का जन्म अढाई हजार वर्ष पूर्व हुआ था फिर भी लोकरूदि के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि आज भगवान का जन्मदिवस है अथवा जैसे रास्ता कहीं नहीं जाता है तथापि लोग कहते हैं कि यह रास्ता पटना जाता है । फूटे घड़े से पानी टपकता है मगर दुनिया कहती है घड़ा टपकता है। जिस दृष्टिकोण से ऐसे कथन सही समझे जाते हैं वह दृष्टिकोण नैगम नय कहलाता है। संग्रह नय - अपनी जाति के अविरोध से एकत्व को प्राप्त अर्थों के आक्रान्त भेदों को एक साथ ग्रहण करना संग्रह नय है। पर-संग्रह नय और अपर-संग्रह नय के भेद से संग्रह नय दो प्रकार का है। पर-संग्रह नय "सकल पदार्थों का सदात्मा से एकत्व" को विषय करता है "सर्वमेक सदविशेषात्" सर्व एक है। सत्गुण की अपेक्षा इसमें भेद नहीं है क्योंकि 'सत्' इस प्रकार का वाक्य 'इदं सत् इदं सत्' इस प्रकार के विज्ञान से अनुवृत्ति लिङ्ग से अनुमित सत्तात्मक एकत्व से सारे पदार्थों का ग्रहण किया जाता है। अथवा संग्रह नय का अर्थ है सत्ता में अभेद दृष्टि। जड़ और चेतन तत्वों की जो धारा समान रूप से प्रवाहित हो रही है, उसी सामान्य तत्त्व को मुख्य करके सत्ता धर्म की प्रधानता को लक्ष्य में रखकर सबको एकरूप मानने वाला अभिप्राय पर-संग्रह नय कहलाता है। सत्ता सामान्य वा महासत्ता की अपेक्षा चेतन और अचेतन दोनों एक हैं क्योंकि दोनों में ही सत्ता समान रूप से व्याप्त है। अपर संग्रहनय की अपेक्षा निगोद आदि सर्व जीवात्मा सामान्य हैं क्योंकि उनकी स्वाभाविक चेतना में कोई विलक्षणता नहीं है तथा मानवत्व की अपेक्षा सर्व मानव एक हैं क्योंकि मानव जाति एक है, इस प्रकार समान धर्म के आधार पर एकत्व की स्थापना करना संग्रह नय है। व्यवहार नय - संग्रह नय से गृहीत पदार्थों का विधिपूर्वक विभाजन करना अथवा भेद करके
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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