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आराधनासमुच्चयम् ९१५
(४) अगुरुलघु आदि गुण स्वभाव से ही षट्गुण हानि वृद्धि रूप क्षणभंगुर अर्थात् एकसमयवर्ती पर्याय से परिणत हो रहे हैं। तो भी सत् द्रव्य के अनन्त गुण और पर्यायें परस्पर संक्रमण न करके अपरिणत अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं। द्रव्य को इस प्रकार से ग्रहण करने वाला नय सत्ता सापेक्ष स्वभाव नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
(५) चराचर पर्याय परिणत संसारी जीवधारियों के समूह में शुद्ध सिद्धपर्याय की विवक्षा से कर्मोपाधि से निरपेक्ष विभाव- नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। (यहाँ पर संसार रूप विभाव में यह नय नित्य शुद्ध सिद्ध पर्याय को जानने की विवक्षा रखते हुए संसार जीवों को भी सिद्ध सदृश बताता है। इसी को 'आलाप पद्धति' में कर्मोपाथि निरपेक्ष स्वभाव अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा गया है।)
(६) जो शुद्ध पर्याय की विवक्षा न करके कर्मोपाधि से उत्पन्न हुई नारकादि विभाव पर्यायों को जीन स्वरूप बताता है, वह कर्मोपाधि सापेक्ष विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। ( इसी को आ. प में कर्मोपाधि सापेक्ष स्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा गया है | )
अथवा, शुद्ध पर्यायार्थिक और अशुद्ध पर्यायार्थिक के भेद से पर्यायार्थिक नय दो प्रकार का है।
शुद्ध पर्याय अर्थात् समय मात्र स्थायी, षट्रगुण हानि-वृद्धि द्वारा उत्पन्न सूक्ष्म अर्धपर्याय ही जिसका प्रयोजन है वह शुद्ध पर्यायार्थिक नय है और अशुद्ध पर्याय अर्थात् चिरकाल स्थायी वा स्थूल व्यञ्जन पर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
शुद्ध सूक्ष्म अर्थपर्याय का विषय करने वाला सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय शुद्ध पर्यायार्थिक नय है और स्थूल व्यंजन पर्याय को ग्रहण करने वाला अशुद्ध ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
संक्षेप कथन से इन दोनों पर्यायार्थिक नयों में सारे पर्यायार्थिक नय गर्भित हो जाते हैं।
अथवा
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय की अपेक्षा नय सात प्रकार के होते हैं ।
नैगमनय : " अनिष्पन्नार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः" (प्र.क. मार्तण्ड, पृष्ठ २०५) अनिष्पन्न अपरिपूर्ण, पदार्थों के संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नैगमनय है अथवा "अर्थसङ्कल्पमात्रग्राही नैगमः " (त. रा. वा. १ / ३३) निगम का अर्थ संकल्प है, अर्थ को संकल्प मात्र से ग्रहण करना जिसका विषय है, उसे नैगम नय कहते हैं।
जैसे कोई मनुष्य कुल्हाड़ी लेकर जा रहा था, किसी ने पूछा- आप कहाँ जा रहे हैं ? उसने कहा, प्रस्थ ( मापने का पात्र) लेने जा रहा हूँ। ऐसे ही किसी व्यक्ति से जो लकड़ी और पानी आदि एकत्र कर रहा था, पूछा- आप क्या कर रहे हैं ? उसने उत्तर दिया- चावल पका रहा हूँ । परन्तु उस समय वह प्रस्थ पर्याय और ओदन पर्याय निष्पन्न नहीं है, उसकी निष्पत्ति के लिए संकल्प मात्र में प्रस्थादि का व्यवहार है।