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ज्ञान के अनेक विकल्प हैं - वह अनेक प्रकार का है। जिस प्रकार चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जघन्य अन्तरात्मा है, बारहवाँ गुणस्थानवर्ती उत्तम अन्तरात्मा है परन्तु मध्यम अन्तरात्मा के अनेक भेद हैं अर्थात् पंचम गुणस्थान से लेकर ११ वें गुणस्थान तक सर्व आत्मा मध्यम अन्तरात्मा हैं ।
आराधनासमुच्चयम् ०१०६
मन:पर्ययज्ञान दो प्रकार का होता है। ये दोनों (अप्पमत्तस्स) अप्रमत्त मुनि के उपयोग में संयम के द्वारा प्राप्त होते हैं।
विशेषार्थ - यह आत्मा मन:पर्ययज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम होने पर दूसरे के मन में प्राप्त मूर्त वस्तु को जिसके द्वारा प्रत्यक्ष जानता है वह मन:पर्यय ज्ञान है। उसके दो भेद हैं- ऋजुमति और विपुलमति । इनमें विपुलमति मन:पर्ययज्ञान दूसरे के मन में प्राप्त पदार्थ को (सीधे व वक्र दोनों को ) जानता है जबकि ऋजुमति मात्र सीधे को ही जानता है। इनमें से विपुलमति उन चरमशरीरी मुनियों के ही होता है जो निर्विकार आत्मानुभूति की भावना रखने वाले हैं तथा ये दोनों की उण में संयमियों के ही होते हैं और केवल उन मुनियों के ही होते हैं जो वीतराग आत्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र की भावना सहित, पन्द्रह प्रमाद रहित अप्रमत्त गुणस्थान के विशुद्ध परिणामों से युक्त हैं। जब यह उत्पन्न होता है तब अप्रमत्त सातवें गुणस्थान में ही होता है, यह नियम है। फिर प्रमत्त के भी बना रहता है, यह तात्पर्य है ।
ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान प्रतिपाती - अप्रतिपाती दोनों प्रकार का होता है, मन:पर्ययज्ञान अप्रतिपाती ही होता है।
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विपुलमति मन:पर्यय के भेद विपुलमन:पर्ययमपि जघन्यमध्योत्तमाख्यया त्रिविधम् । निर्भेदमुत्तमाद्यममनेकभेदात्मकं मध्यम् ॥ ८३ ॥
विपुलमन:पर्ययं
विपुलमति मन:पर्ययज्ञान | अपि
भी ।
अन्वयार्थ जघन्यमध्यमोत्तमाख्यया उत्तम, मध्यम और जघन्य के नाम से । त्रिविधं तीन प्रकार का है। उत्तमाधमं - उत्तम और जघन्य । निर्भेदं भेद रहित हैं, परन्तु, मध्यं मध्य । अनेकभेदात्मकं - अनेक भेदरूप हैं।
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परन्तु विपुलमति
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अर्थ - विपुलमति मन:पर्ययज्ञान भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का है। मन:पर्ययज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है, परन्तु क्षयोपशम अनेक प्रकार का है । अतः विपुलमति मन:पर्ययज्ञान भी अनेक प्रकार का है। इसे तीन भागों में विभाजित किया गया है उत्तम, और जघन्य |
मध्यम,
उत्तम और जघन्य विपुलमति भेदरहित हैं, एक ही प्रकार के हैं। परन्तु मध्यम ज्ञान अनेक प्रकार का है। जैसे सर्व जघन्य श्रुतज्ञान लब्ध्यक्षर प्रमाण है और उत्कृष्ट ११ अंग और १४ पूर्व का परिपूर्ण ज्ञान