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है। यह इसकाल में नहीं है। इस मरण वाला जिस स्थान पर खड़ा होता है या बैठता है वहाँ से उठता नहीं है इसलिये अचल है। परन्तु उपसर्ग आने पर हिलडुल जाता है, अतः चल भी है।
जिसमें अपने शरीर की वैयावृत्ति स्वयं करता है, दूसरे से नहीं कराता है, उसे इंगिनीमरण कहते हैं, यह भी इस काल में नहीं है।
जिसमें अन्न-पानी का त्याग कर समतापूर्वक मरण किया जाता है उसे भक्त प्रत्याख्यान मरण कहते हैं। इसके दो भेद हैं सविचार और अविचार।
सहसा मृत्यु के कारण उपस्थित हो जाने पर अथवा जंघा बल क्षीण हो जाने पर अपने संघ में ही आहार-पानी का त्याग कर मरण किया जाता है, वह अविचार भक्त प्रत्याख्यान है। इसके भी दो भेद हैं, प्रकाश और अप्रकाश।
क्षपक का मनोबल एवं धैर्य देखकर अनुकूल कारण मिलने पर जो सर्व जनता के समक्ष प्रगट कर दिया जाता है वह प्रकाश सल्लेखना वा समाधिमरण है। क्षपक का मनोबल उत्कृष्ट नहीं है, बाह्य कारण अनुकूल नहीं है तब समाधि बाह्य में प्रकट नहीं की जाती है वा अकस्मात् मरण आ जाता है तब त्याग की विधि प्रकट नहीं की जाती है तब अप्रकाश समाधि होती है। अन्य जगह अविधार भक्त प्रत्याख्यान का विस्तार से कथन किया है।
सविचार भक्त प्रत्याख्यान में ४० अधिकार लिखे हैं। ४० अधिकारों के नाम इस प्रकार हैं(१) अर्ह - समाधिमरण वा सल्लेखना ग्रहण करने योग्य क्षपक कैसा होना चाहिए?
उपसर्ग, दुर्भिक्ष, अर।, निष्प्रतिकार रोग आदि के आने पर सल्लेखना ग्रहण की जाती है। अत: इस प्रकार का मानव सल्लेखना ग्रहण करने योग्य है। परन्तु इस मानव में धैर्य कैसा है, श्रद्धा कैसी है, आदि गुण भी 'अर्ह' में मर्भित होते है।
(२) लिंग - शिक्षा, विनय, आदि रूप स्याधन सामग्री के चिह्न। अर्थात् शिक्षा आदि ग्रहण करते समय किस प्रकार बाह्य में उत्साह प्रकट होता है।
(३) शिक्षा - ज्ञानोपार्जन (शुतज्ञान) करने की भावना निरन्तर रहे। (४) विनय - गुरुजनों व ज्ञानादिक के प्रति आदर भाव, मानसिक प्रसन्नता। (५) समाधि - मन की एकाग्रता । (६) अनियत विहार - मानसिक ममत्व हटाने के लिए अनियत स्थान में रहना ।
(७) परिणाम - सल्लेखना धारण करके अपने कर्तव्य (करने योग्य कार्यों में) परायणता (तत्परता उत्साह) होना।