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आराधनासार - ३५
अस्थाधिकरणमपि कथ्यते । अधिकरणं द्विविधं आभ्यंतरं बाह्यं च। आभ्यंतरं स्वामिसंबंधार्ह एवात्मा 'विवक्षात; कारक-प्रवृत्तेः बाह्यं लोकनाडी। सा कियती। एकरज्जुविष्कंभा चतुर्दशरज्वायामा। स्थितिरप्यस्य कथ्यते। औपशमिकस्य जघन्योत्कृष्टा चांतर्मोहूर्तिकी। क्षायिकस्य संसारिणः जघन्यांतर्मोहूर्तिकी उत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सांतर्मुहूर्ताष्टवर्षहीनपूर्वकोटीद्वयाधिकानि । मुक्तस्य सादिरप्यपर्यवसाना । क्षायोपशमिकस्य जघन्यांतमौहूर्तिकी उत्कृष्टा षट्षष्टिसागरोपमाणि || विधानमप्यस्य। विधानं सामान्यादेकं सम्यग्दर्शनं द्वितयं निसर्गजाधिगमजभेदात् । त्रितयं औपशमिकक्षायिकक्षायोपशभिकभेदादेवं संख्येया विकल्पा असंख्येया अनंताश्च भवंति श्रद्धातृश्रद्धातव्यभेदार ! सक्कलक्षाविधाः सूजन्यः संकि, अ.5 देशो मुख्यवृत्त्या मनुष्यगतौ कथ्यते तद्भवमुक्तिसाधनत्वात्।
अब अधिकरण का कथन करते हैं
बाह्य और अंतरंग के भेद से अधिकरण के दो भेद हैं। आभ्यन्तर अधिकरण आत्मा ही है क्योंकि आत्मा में ही सम्यग्दर्शन है अत: स्वामी-संबंध के योग्य आत्मा ही है। केवल विवक्षा से कारक की प्रवृत्ति होती है।
बाह्य अधिकरण १४ राजू लम्बी १ राजू चौड़ी स नाली है। क्योंकि सनाली में रहने वाले पंचेन्द्रिय सैनी पर्याप्त जीवों को ही सम्यग्दर्शन होता है, अन्य को नहीं।
सम्यग्दर्शन की स्थिति का कथन करते हैं- स्थिति दो प्रकार की होती है- जघन्य और उत्कृष्ट । औपशमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। अन्तर्मुहूर्त के बाद वह सम्यग्दर्शन छूट जाता है।
संसारी जीवों के क्षायिक सम्यग्दर्शन की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण है अर्थात् अन्तर्मुहूर्त में वह मुक्तिपद को प्राप्त कर लेता है। उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहुर्त सहित आठ वर्ष कम दो कोटि पूर्व अधिक तैंतीस सागर प्रमाण है। इतने काल के भीतर वह आत्मा निश्चय से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। मुक्तात्मा की अपेक्षा क्षायिक सम्यग्दर्शन की स्थिति सादि और अनन्त है।
___ क्षायोपशमिक सम्बग्दर्शन की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है अर्थात् यह सम्यग्दर्शन उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त में छूट सकता है। इसकी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर प्रमाण है अर्थात् ६६ सागर के बाद यह सम्यग्दर्शन या तो क्षायिक सम्यग्दर्शन रूप परिणत हो जाता है या फिर छूट कर मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है।
अब सम्यग्दर्शन के विधान (भेद) का कथन करते हैं
सामान्य से सम्यग्दर्शन एक प्रकार का है। विशेष रूप से निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है। आज्ञा सम्यक्त्व, उपदेश सम्यक्त्व आदि के भेद से १० प्रकार का है। इस प्रकार श्रद्धातु और श्रद्धातव्य के भेद से संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रकार का भी सम्यग्दर्शन होता है।
इस प्रकार उपरि कथित लक्षण वाला सम्यग् दर्शन नाना प्रकार के सूत्र से कथित है। परन्तु इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से मनुष्यभव की अपेक्षा कथन है- क्योंकि मानव ही आराधना की आराधना कर उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।
१. श्रद्धान करने वाले को श्रद्धाता कहते हैं।
२. श्रद्धान करने योग्य वस्तु को श्रद्धातव्य कहते हैं।