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आराधनासार - ३०
तदुदयेन जीवो विपरीतं तत्त्वं श्रद्धत्ते न सम्यक् । यदा तु लब्धकालादिलब्धिको भवति जीवस्तदा निसर्गाधिगमाख्यकारणद्वयं प्राप्नोति। निसर्गः स्वभावः आचार्यादीनां धर्मोपदेशविशिष्टोपायः अधिगमः निसर्गेणापि पूर्वमधिगमेन भूत्वा भाव्यं अन्यस्मिन् जन्मनि भावितयोगत्वात्। ततः अधिगम एव सम्यक्त्वोत्पत्तिनिमित्तं प्रधानं निसर्गे अधिगमे वा सत्यपि जीव औपशमिकं क्षायोपशमिक क्षायिक चेति कारणनयं समाश्रित्य तत्त्वश्रद्धानं विधत्ते। अथैतेषां औपशमिकादीना यथानुक्रमेण लक्षणमाह ! लक्षणं द्विविध सामान्यविशेषभेदात् । एकव्यक्तिनिष्ठं सामान्य अनेक व्यक्तिनिष्ठो विशेषः । तत्र तावत्सामान्यलक्षणमुच्यते ।
प्रथम (अगृहीत) मिथ्यात्व सकल संसारी जीवराशि के होता है। इसके उदय से जीव तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वातत्त्व (सम्यग्मिथ्यात्व युक्त) परिणाम वाला भी नहीं हो सकता। क्योंकि अगृहीत मिथ्यात्व में विपरीत (सम्यक् श्रद्धान और सम्यक्त्व मिथ्यात्व इन दोनों) श्रद्धान का अवकाश नहीं है। द्वितीय (गृहीत मिथ्यात्व) विशिष्ट पंचेन्द्रिय जीवराशि के होता है। उसके उदय से जीव, तत्त्वों का विपरीत श्रद्धान करता है, सम्यक् श्रद्धान नहीं करता।
जब जीव काललब्धि आदि का सुयोग प्राप्त करता है तब निसर्ग और अधिगम नामक दो कारणों से सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। निसर्ग का अर्थ स्वभाव है और अधिगम का अर्थ आचार्यादि के धमोपदेश विशिष्ट उपाय हैं। निसर्ग सम्यग्दर्शन में भी पूर्व में प्राप्त देशनालब्धि युक्त आसन्नभव्य तत्त्वश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है, वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है।
निसर्गज सम्यग्दर्शन का कथन होने पर भी सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का प्रधान कारण तो अधिगमज ही है क्योंकि देशनालब्धि के बिना जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती।
शंका - यदि देशनालब्धि के बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती है तो निसर्गज सम्यग्दर्शन का कथन नहीं करना चाहिए?
उत्तर - यद्यपि देशनालब्धिपूर्वक होने से सम्यग्दर्शन अधिगमज ही है तथापि गुरु को जिसमें विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता है उसको निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसलिये निसर्गज वा अधिगमज निमित्त को प्राप्त कर जो तत्त्वश्रद्धान होता है वह औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है। अब इन तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शन का क्रम से लक्षण कहते हैं।
जो सम्यग्दर्शन गुरु को अधिक परिश्रम के जिना उत्पन्न होता है, वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है। जो गुरु के द्वारा विशेष समझाने पर तत्त्वरुचि होती है उसको अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह बाह्य कारण की अपेक्षा कथन है।
अब अन्तरंग कारणों की अपेक्षा से होने वाले सम्यग्दर्शन का लक्षण कहते हैं। वह लक्षण दो प्रकार का है- सामान्य और विशेष। जो अनेकव्यक्तिनिष्ठ होता है, वह सामान्य लक्षण है और जो एक व्यक्ति निष्ठ है, वह विशेष है।