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आराधनासार-२९
जीव और कर्मों का एकक्षेत्रावगाही हो जाना, अन्यान्य प्रदेशों का परस्पर एक स्थान में हो जाना बंध है। वह बंध प्रकृति, प्रदेश, अनुभाग और स्थिति की अपेक्षा चार प्रकार का है। स्वभाव को प्रकृति कहते हैं- जैसे नीम की प्रकृति कटु है, दूध की मधुर । उसी प्रकार ज्ञान गुण का आच्छादन करना ज्ञानावरणीय का स्वभाव है, दर्शनावरण आदि को भी इसी भाँति समझना। पुद्गल परमाणु के समूह रूप जो कार्माण वर्गणा है, वह प्रदेश बन्ध है। फलदान शक्ति अनुभाग बंध है और कर्म प्रकृति का आत्मा के साथ रहने का नाम स्थिति बंध है। प्रकृति और प्रदेश बंध योग से होता है और स्थिति, अनुभाग बन्ध कषाय से होता है
आसव के निरोध को संवर कहते हैं अथवा आते हुए कर्मों का रुक जाना संवर है। बँधे हुए कर्मों का एकदेश गलना, झड़ना नष्ट होना निर्जरा है।
सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना, आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष है अथवा बंध के कारणों का अभाव और निर्जरा होने से कर्मों का अभाव होना मोक्ष है।
ये सात तत्त्व कहलाते हैं। इनमें पुण्य और पाप मिलाने से नौ पदार्थ होते हैं। अथवा पुण्य-पाप रहित नौ पदार्थ सात तत्त्व कहलाते हैं। शंका- नौ पदार्थ का पृथक् कथन क्यों किया है?
उत्तर - जीव, अजीव आदि सातों तत्त्व पुण्य और पाप रूप हैं। जैसे प्रथम गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान तक के जीव पापात्मा है और चतुर्थ गुणस्थानसे १४ वें गुणस्थान तक के जीव पुण्यात्मा हैं। इसी प्रकार आस्रव के भी दो भेद हैं- पुण्यासव और पापासव। जैसे शुभं नाम, गोत्र, आयु रूप कर्मों का आगमन पुण्यासव है और दर्शनावरणीय आदि कर्मों का आगमन पापास्रव है।
बंध भी पाप और पुण्य बंध के भेद से दो प्रकार का है। संवर भी दो प्रकार का है- पुण्य संवर और पाप संवर । पाप प्रकृतियों का आना रुक जाना पाप संवर है और पुण्य प्रकृतियों का आगमन रुक जाना पुण्य संवर है।
पापकर्मों का एकदेश गलना, झड़ना पापनिर्जरा है और पुण्य कर्मों का झरना पुण्यनिर्जरा है।
पापकर्मों का आत्मा से छूटना पापमोक्ष है और पुण्यकर्मों का आत्मा से छूट जाना पुण्यमोक्ष है। इन सात तत्त्व, नौ पदार्थ, छह द्रव्य और पाँच अस्तिकाय रूप पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इस प्रकार संक्षेप से छह द्रव्य पाँच अस्तिकाय नौ पदार्थ सात तत्त्व का कथन किया। विस्तारपूर्वक अन्य ग्रन्थों से जानना चाहिए।
अथवा, जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथित तत्त्व ही सत्य है, वास्तविक है अन्य नहीं; इस प्रकार दृढ़ विश्वास, प्रतीति, रुचि करना सम्यग्दर्शन है। वह निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का है। क्योंकि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के ये दो भेद दो कारणों की अपेक्षा से हैं। '
जिसके उदय से जीवके अनादिकालीन कर्मपंटल-अष्टक आत्मा को नहीं छोड़ते हैं, वह मिथ्यात्व है। वह मिथ्यात्व अगृहीत और गृहीत के भेद से दो प्रकार का है।