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卐 चतुर्विध आराधना ॥ अनादि काल से यह संसारी प्राणी मिथ्यादर्शन और कषाय के वशीभूत हो विषय-वासनाओं में फँसकर शारीरिक, मानसिक आदि अनेक दुःख भोग रहा है। अनन्त काल तो इस जीव ने एकेन्द्रिय पर्याय धारण कर निगोद में व्यतीत किया, जहाँ पर एक श्वास में अठारह बार जन्म-मरण किया। ४८ मिनट में से कुछ कम काल में छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्मा और इतनी ही बार मरण किया। यदि किसी कारणवश कर्मो का कुछ लघु विपाक हुआ नो निमोद से निकल कर दो, तीन, चार इन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय पद प्राप्त किया तो भी ज्ञान के बिना (मन के बिना) हित और अहित, हेय और उपादेय के विचार से शून्य होने से आत्महित के विचारविमर्श की संभावना से रहित रहा । किसी पुण्य के उदय से सैनी पंचेन्द्रिय भी हुआ तो भी मिथ्यादर्शन और विषय वासना के 6 में होकन करतात की जेसा ही उत्पन्न नहीं हुई।
सांसारिक भोगों की वाञ्छा से मुनिव्रत धारण कर, घोर उपसर्गों को सहन कर गैत्रेयकों में गया। स्वर्गीय सुखों का अनुभव भी किया, परन्तु आत्मतत्त्व को नहीं पहचाना, शुद्धात्मा का भान, ज्ञान नहीं हुआ अतः पुनः वहाँ से च्युत होकर अनेक मानव-तिर्यञ्च योनियों में भ्रमण कर त्रस पर्यायका काल पूर्ण हो जाने से पुन:निगोद में चला गया। इस प्रकार इस जीव ने इस संसार में भ्रमण कर अनन्त दुःखों को सहन किया
इस संसार में परिभ्रमण करने वाले अनन्त जीव तो रत्नत्रय रूपी महा-औषधि सेवनकर अजर अमर रूप परम पद को प्राप्त कर सुखी हो गये। परन्तु द्रव्यार्थिक नय से ज्ञायक स्वभावी होते हुए भी अनन्तानन्त जीव अपने स्वभाव की श्रद्धा के अभाव में संसार रूपी चक्की के जन्म-मरण रूपी दो पाटों के बीच अनादि काल से पिसते चले आ रहे हैं। शारीरिक, मानसिक दुःखों के पात्र बने हुए हैं। उन दुःखों के नाश करने का एक ही उपाय है कि जिन्होंने मोक्षमार्ग को स्वीकार कर स्वयं परम पद प्राप्त किया है और अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा हमें जो मोक्षमार्ग बताया है हम उस पर चलने का प्रयत्न करें। उस मार्ग को स्वीकार करें। अन्यथा हम स्वात्मोपलब्धि रूप स्वकीय शुद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। क्योंकि केवल शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त कर लेने मात्र से वा “मैं ज्ञायक स्वभावी सिद्ध समान त्रिकाल शुद्ध आत्मा हूँ; मेरा स्वरूप सिद्ध के समान है; अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य का धनी हूँ" इस प्रकार के उद्गारों से हम सिद्ध वा शुद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकते। उस शुद्ध अवस्था को प्राप्त करने के लिए हमें करना पड़ेगा- पुरुषार्थ, प्रयत्न। वह पुरुषार्थ है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र की आराधना कर के संसारी भव्यात्मा कर्म-कालिमा