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आराधनासार-२१
नवमे पक्षे रसशब्दस्तिक्तादौ वर्तते तिक्ताम्लमधुरकटुकषायरसनेंद्रियविषयाः सर्वजनप्रसिद्धाः। तिक्तादिरित्युपलक्षणं रूपादीनां ग्राहकत्वात् शोभनस्तिक्तादिरसोपलक्षणः स्पर्शरसगंधवर्णशब्दसमुदयः सुरस: सुरसेन तिक्तादिरसोपलक्षणेन स्पर्शरसगंधवर्णशब्दसमुदायेन दितं खंडितं रहितं वियोजितमिति यावत्। उक्तं च परमात्मप्रकाशे
जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जासु ण सडु ण फासु।
जासु ण जम्मणु मरणु णवि णामु णिरंजणु तासु ।। इति । पुनः किं विशिष्टं। वमिति पूर्वोक्तमिति नवमश्छायार्थः।।
दशमे पक्षे रसशब्दो द्रवेपि वर्तते सुष्ठु द्रवति शुद्धगुणपर्यायान् परिणमतीति सुद्रवः सुद्रवेण शुद्धद्रव्यगुणपर्यायपरिणमनशीलेन वंदितमभिनंदितं समृद्धभाते यावत्। धातूनाभनेकार्थत्वातं, धातवो हि गजेन्द्रलक्षणा: स्वच्छंदचारित्वात अनेकार्थविंध्याचलवनं पर्यटतीति दशमश्छायार्थः ।।
तथैकादशेपि पक्षे रसशब्दः पारदेपि वर्तते पारदस्य वस्तुविशेष विमुच्य निरुक्तिवशादर्थान्तरं गृह्यते, नामानि हि समस्याप्रहेलिकाछलादिकौतुकप्रयोजनेन बलादर्थान्तरेण नीयते न दोषाय। सुष्टु
नवमी परिभाषा में 'रस' शब्द से सर्वजनप्रसिद्ध तिक्त, अम्ल, मधुर, कटु और कषायला भेदवाले रसना इन्द्रिय के विषय से अभिप्राय है। रस यह उपलक्षण मात्र है इसलिए रस शब्द से स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण इन सबका ग्रहण होता है। शोभन रस गंधादि जिनके हों वे सुरस कहलाते हैं। उस सुरस को ‘दिय' खण्डन करने वाले सिद्ध भगवान सुरसदियं कहलाते हैं। परमात्मप्रकाश में लिखा है
___ जिसमें रस, वर्ण, गन्ध, शब्द, स्पर्श नहीं हैं, जिसमें जन्म-मरण नहीं है, वह निरंजन सिद्ध भगवान है। वे सिद्ध भगवान 'वं इन' मुक्तिरमा के पति हैं।
दसवें पक्ष में 'रस' शब्द द्रव (प्राप्त) अर्थ में आता है। 'सु' भले प्रकार 'रसति' 'द्रवति' 'प्राप्नोति' स्वकीय द्रव्य गुण पर्याय को प्राप्त होता है- स्वकीय गुण-पर्याय से परिणमन करते हैं। शुद्ध द्रव्य गुण पर्याय से परिणत यतियों के द्वारा वंदित है, अभिनंदित है, समृद्ध है। भावार्थ- शुद्ध द्रव्य-गुण-पर्याय से परिणत यतियों के द्वारा वंदित सिद्ध भगवान हैं। धातु अनेक अर्थ वाले होते हैं। “धातूनामनेकार्थत्वात्" जिस प्रकार स्वच्छन्दचारी गजेन्द्र विंध्याचल आदि अनेक अटवियों में भ्रमण करता है, उसी प्रकार ‘कृ पठ् भू' आदि धातु भी अनेक अर्थ रूपी अटवियों में भ्रमण करते हैं। जैसे गच्छ धातु गमन, ज्ञान, सेवन आदि अनेक अर्थों में आता है।
ग्यारहवें अर्थ में 'रस' शब्द पारद अर्थ में भी आता है। यद्यपि पारद का वास्तविक अर्थ पारा होता है, परन्तु वास्तविक अर्थ को छोड़कर यदि निरुक्ति अर्थ (शब्दार्थ) लिया जाता है तो भी दोष के लिए नहीं है। क्योंकि धातु के नाम समस्यापूर्ति, प्रहेलिका, छल, कौतुक, आदि के प्रयोजन के कारण बलपूर्वक अर्थान्तर से भी ग्रहण किये जाते हैं। इसमें व्याकरण दृष्टि से दोष नहीं आता है। अत: 'सु' सुष्ठ (शोभनीय) भली प्रकार से, अतिशयरूप से संसार समुद्र के पार को देते हैं- अर्थात् जो स्वयं संसार-समुद्र से पार