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आराधनासार - २०
पुनः किं विशिष्टं । वं पश्चिमदिगीशं वः पश्चिमदिगीशे स्यादित्यभिधानात् " । पश्चिमदिगीशमित्युक्ते कोर्थो लभ्यते । पश्चिमश्चासौ दिक् पश्चिमदिक् तस्या ईशः स्वामी । इह दिक्शब्दो गत्यर्थे गृह्यते यतो जीवस्य सर्वाभ्यो गतिभ्यः पश्चिमा चरमा गतिर्मुक्तिर्भवति ततः पश्चिमदिगीशं मुक्तिस्वामिनमित्यभिप्रायः इति षष्ठश्छायार्थः ॥
सप्तमेपि पक्षे रसशब्दो देहधानुषु वर्तते अत्राप्युपरितनपदखंडनत्रयं विगृह्य व्याख्या विधीयते । सुष्टु अतिशयेन रसा असृज्जामेदास्थिप्रमुखाः शरीरधातवो यस्मिन् स सुरसः शरीरमेव । किंविशिष्टं सिद्धं । दितं खंडितं रहितं वियोजितमिति यावत् । केन । सुरसेन शरीरेण । पुनः किंविशिष्टं । वं पश्चिमदिगीशं मुक्तीशमिति सप्तमश्छायार्थः ।
अष्टमे पक्ष रसशब्दो बोले वर्तते बोलशब्दस्तु गंधरसे प्राणार्थेपि वर्तते "बोलो गंधर से प्राणे इत्यभिधानात् " इह तु प्रयोजनवशात् प्राणार्थे गृह्यते, सुष्ठु अतिशयवता रसेन बोलेन पंचेंद्रियादिदशप्राणसमुदायेन दितं खंडितं वियोजितमिति वमिति पूर्वोक्तमेवेत्यष्टमश्छायार्थः ॥
'वं' शब्द का अर्थ है 'पश्चिम दिगीशं वं के पश्चिम और दिशा दोनों अर्थ होते हैं। 'वः पश्चिम दिगीशे' अभिधान कोष में लिखा है- वं शब्द पश्चिम दिशा और ईश अर्थ में आता है। जिसका अर्थ हैपश्चिम दिशा का स्वामी । दिक् शब्द गति अर्थ में है और जीवों की पश्चिम ( चरम, उत्तम ) गति मोक्ष है। उसका स्वामी, पश्चिम दिशा का स्वामी मुक्ति रमापत्ति अर्थ होता है। अतः "सुरसेन वं दितं" का अर्थ मुक्तिरमा के पति सिद्ध भगवान् हैं।
सप्तम पक्ष में रस शब्द देहधातुओं में आता है। यहाँ भी उपरितन तीन खण्ड पदों को ग्रहण कर व्याख्या की जाती है । 'सु' सुष्ठु (अच्छा ) 'रस' हड्डी, रक्त, मज्जा, मेद आदि सात धातु जिस शरीर में हैं वह 'सुरस' शरीर ही है। उस सप्त धातुमय शरीर का जिन्होंने 'दियं' खण्डन कर दिया है, नाश कर दिया है अर्थात् सुरसेन शरीर से जो रहित है। वं= जो मुक्ति के स्वामी हैं वे सिद्ध कहलाते हैं।
अष्टम पक्ष में 'रस' शब्द का अर्थ बोल भी होता है और बोल शब्द गंध, रस और प्राण अर्थ में आता है।
“बोले गंधरसे प्राणे इत्यभिधानात् " ऐसा अभिधान कोष में लिखा है। परन्तु यहाँ पर प्रयोजनवश 'रस' शब्द का अर्थ 'प्राण' ग्रहण करना चाहिए। जिसका अर्थ है कि जो 'सु' भली प्रकार से 'रस' पाँच इन्द्रिय, मन-वचन काय ये तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास रूप दस प्राणों का 'दियं' खण्डन करके, नाश करके 'वं इन " मुक्ति रमा के स्वामी हो गये हैं; उनको 'सुरसेन वं दियं' कहते हैं, यह सिद्ध का विशेषण है।