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आराधनासार-६
महावीरविशेषणयुक्तानां द्रव्यभावभेदभिन्नं द्विविधं नमस्कार कुर्वाणेन आराधनासारं वक्ष्येहमिति प्रतिज्ञा विरचयता च श्रीमत्परमभट्टारकश्रीदेवसेनाचार्येण स्तोत्रमिदं विधीयते ।
अष्ट निर्मलतर गुणों से समृद्ध । सिद्धानां सिद्धोंको। द्रव्यभाव भेद भिन्न-ट्रव्य और भाव के भेद से। द्विविध-दो प्रकार के। नमस्कार नमस्कार को। कुर्वाणेन = करते हुए। आराधनासार-आराधनासार को। अह-मैं। प्रवक्ष्ये कहूंगा। इति इस प्रकार की। प्रतिज्ञा = प्रतिज्ञा को। विरचयता= करने वाले। श्रीमत्परम-भट्टारकश्रीदेवसेनाचार्येण: श्रीमत्परमभट्टारक श्री देवसेन आचार्य के द्वारा। इदं यह। स्तोत्रं मंगलाचरणरूपस्तोत्र । विधीयते-किया जा रहा है।
भावार्थ-आराधनासार ग्रन्थ की टीका करने वाले श्री रत्नकीर्ति देव ने इस ग्रन्थ की टीका के प्रारंभ में ग्रंथ रचयिता देवसेन आचार्य की उपर्युक्त विशेषणों से विशेषता प्रगट की है वह इस प्रकार है
संसार एक महासमुद्र है जिसका पार पाना बहुत कठिन है. परन्तु देवसेन आचार्य इस संसार-समुद्र के तीर पर स्थित हैं अर्थात् आसन्नभव्य हैं। निरुपाधि-जिसकी तुलना किसी दूसरे सुख के साथ नहीं की जा सकती। निरुपद्रव-जिसमें किसी भी कारणों से उपद्रव नहीं आ सकता। अविनाशी, सनातन, अनन्त सुख की प्राप्ति के कारणों के चिंतन में ही जिनका समय व्यतीत हो रहा है अर्थात् जो निरंतर अनन्त अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का ही चिन्तन करते हैं। जो सिद्धालय रूपी नगर में प्रवेश करने के इच्छुक हैं। भेद-अभेद रूप रत्नत्रय की नौका पर आरूढ़ हैं अर्थात जो निश्चय और व्यवहारमय रत्नत्रय के धारक दिगम्बर मुनि हैं।
स्वभाव से ही जिनका हृदय करुणा रस से परिपर्ण है. इसलिए वे अन्य भव्य जीवों को उनके उपदेशों के द्वारा सम्बोधित करके रत्नत्रय रूपी नौका पर चढ़ाकर संसार-समुद्र से पार करने का प्रयत्न करते हैं। अर्थात् शिष्यों, भव्य जीवों को शिक्षा-दीक्षा देते हैं। अत: वे स्वयं नौका के खेने के लिए (चलाने के लिए) कर्णधार हैं तथा स्वयं उस नौका पर बैठने वाले सार्थवाहाधिप भी हैं अर्थात् स्वयं संसार-समुद्र से पार होते हैं और दूसरों को पार करते भी हैं।
जिन्होंने मोक्षमार्गगामी भव्य जीवों के पीछे शीघ्रता से दौड़ने वाले महामोहनामक चोर राजा के किंकरभूत विषय कषाय रूपी लुटेरों से होने वाले भय को दूर करने के लिए (विषय-कषाय रूपी चोरों का नाश करने के लिए) निरंतर सकल सिद्धान्त का रहस्यभूत निश्चय एवं व्यवहार के भेद से विभाजित चार प्रकार के आराधना ग्रन्थ से ग्रथित शब्द ब्रह्मा का आश्रय लिया है। अर्थात् विषय-कषायों से बचने के लिए चार प्रकार के आराधना ग्रन्थों का निरन्तर अध्ययन और अध्यापन करते हैं। जो अनेकान्त रूपी आकाश मार्ग में सूर्य के समान आचरण कर रहे हैं, ऐसे श्री देवसेन आचार्य
श्रेयोमार्ग की सिद्धि, शिष्टाचार का परिपालन, नास्तिकता का परिहार और शास्त्र की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिए, महावीर विशेषण से संयुक्त, परम सम्यक्त्वादि (सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, अत्र्यानाधत्व, सूक्ष्मत्व, वीर्यत्व) अष्ट प्रसिद्ध निर्मलतर गुणों से युक्त सिद्धों को भाव और द्रव्य दोनों प्रकार का नमस्कार करके “मैं आराधनासार ग्रन्थ कहूँगा।" ऐसी प्रतिज्ञा कर मंगलाचरण करने के लिए स्तोत्र कहते हैं१. स्तुत्य के गुणों का मनमें चिन्तन करना, उनके प्रति अनुराग होना भाव नमस्कार है। २. वचनों से स्तुति करना, हाथ जोड़कर सिर झुकाना द्रव्य नमस्कार है।