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आराधनासार - ४
इस मंगलाचरण में टीकाकार आचार्यदेव ने सिद्ध शब्द से अरिहत, सिद्ध रूप परम पद को प्राप्त परमात्मा को नमस्कार करके आराधनासार की टीका करने की प्रतिज्ञा की है।
जिनेन्द्रहिमवद्वक्त्रपग्रहदविनिर्गता।
सप्तभंगमयी गंगा मां पुनातु सरस्वती ॥२॥ अन्वयार्थ - जिनेन्द्रहिमवद्वक्त्रपद्महदविनिर्गता-जिनेन्द्र भगवान रूपी हिमवान पर्वत के मुखरूपी पद्मसरोवर से निकली हुई। सप्तभंगमयी अस्ति नास्ति आदि सप्त भंगों से व्याप्त । सरस्वती सरस्वती रूपी। गंगा-गंगा ! मां-मुझको। पुनातु पवित्र करे।
भावार्थ - इस श्लोक में आचार्यदेव ने रूपक अलंकार में सरस्वती को गंगा की उपमा दी है। जैसे हिमवान् पर्वत के पद्म नामक तालाब से निकली हुई गंगा सबको पवित्र करती है, उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान रूपी हिमवान् पर्वत और उनके मुखरूपी पद्म सरोवर से निकली हुई तथा सप्त भंग रूपी कल्लोलों से व्याप्त सरस्वती रूपी गंगा हम सबको पवित्र करे ।।२।।
गुरूणां चरगहन्द महामंत्रोपमं वसत् ।
सदा महृदयांभोजे हियाद्विघ्नपरंपराम् ॥३॥ अन्वयार्थ - महामंत्रोपमं महामंत्र के समान। सदा=निरंतर। मदहृदयांभोजे-मेरे हृदय रूपी कमल में। वसत्=स्थित वा रहने वाले। गुरूणां गुरुओं के चरण द्वन्द्व= दोनों चरण कमल । विघ्नपरंपरां-विघ्नों की परंपराको। हियात्-नष्ट करें।
भावार्थ - जिस प्रकार हृदय स्थित महामंत्र (णमोकार मंत्र) जप करने वाले के सारे विघ्नों को दूर करता है, उसी प्रकार हृदय में स्थित गुरुराजों के चरण कमल शिष्य के सारे विघ्नों को नष्ट करते हैं। जिसके हृदय में गुरुभक्ति है, गुरु के चरण हृदय में स्थित हैं, उसके किसी भी कार्य में विघ्न नहीं आता है। सर्व कार्य अनायास सफल होते हैं।
“गुरु की भक्ति से मुक्ति की प्राप्ति होती है तो अन्य कार्यों की सिद्धि में आश्चर्य ही क्या है ! जिस रत्न से तीन लोक की सम्पदा प्राप्त होती है क्या उस रत्न से तुषों का समूह प्राप्त होना दुर्लभ है? अर्थात् दुर्लभ नहीं है।
गुरुभक्ति की शक्ति अचिंत्य है- 'गुरुस्नेह: कामसूः गुरु का स्नेह सर्व इच्छाओं को पूर्ण करने वाला है।