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आराधनासार - २
" सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यकृतप इन चारों का यथायोग्य रीति से उद्योतन इनमें परिणति करना, इनको दृढ़ता पूर्वक धारण करना, इनके मन्द पड़ जाने पर पुनः जागृत करना और इनका आमरण पालन करना आराधना है। " १
करना,
२५ दोष रहित और आठ अंग सहित सम्यग्दर्शन का पालन करना सम्यग्दर्शन का उद्योत है।
संशय, विपर्यय और अनध्यवसाथ रहित ज्ञान का पालन करना वा यथावद् वस्तु का निर्णय करना सम्यग्ज्ञान का उद्योत है ।
निर्दोष सम्यक्चारित्र का पालन करना चारित्र का उद्योत है। भूख-प्यास से आकुलित होकर असंयम रूप परिणामों का नहीं होना तप का उद्योत है।
उद्यवन का अर्थ मिश्रण हैं । अतः आत्मा का सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,
में परिणत होना, लीन होना सम्यग्दर्शनादि का उद्यान है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तपको दृढ़तर धारण करना निर्वहण है। किसी कारण से सम्यग्दर्शन आदि के शिथिल होने पर उनको पुनः जागृत करना, उनको शिथिल नहीं होने देना साधन है ।
सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सभ्यक्चारित्र और सम्यक्तप का जीवन पर्यन्त निर्दोष रूपसे पालन करना निस्तरण है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप के उद्योत, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण को आराधना कहते हैं ।
समता, माध्यस्थ, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र और आत्मस्वभावरूप धर्म की साधना वा सिद्धि जिन कारणों से की जाती है, उसे आराधना कहते हैं।
सम्यग्दृष्टि पुरुषों का, सम्यग्दर्शनादिक से होने वाले अतिशयों में वा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तपश्चरण के प्रति मानसिक अनुराग, प्रीति वा भक्ति है उसे आराधना कहते हैं।
१. उज्जोवणमुज्जत्रणं णिव्वाहणं साहणं च णिच्छरणं ।
दंसण - गाण चरितं तत्राणमाराहणा भणिया ||२ ||
- भगवती आराधना (मू.)