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आराधनासार १९७
शरीरे रागाद्युद्भवो न पुनर्मम अनंतसुखसंपत्स्वभावस्य इति भावनापर: क्षपकोस्तीत्यादिशति
णय अस्थि कवि वाहीण य मरणं अत्थि मे विसुद्धस्स । वाही मरणं काए तम्हा दुक्खं ण मे अस्थि ।। १०२ ।।
न चास्ति कापि व्याधिर्न च मरणं अस्ति मे विशुद्धस्य । व्याधिर्मरणं काये तस्मात् दुःखं न मे अस्ति || १०२ ॥
णय अस्थि को वही निरंजनशुद्धात्मसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकस्य मम कापि व्याधिर्नास्ति तथा मम नित्यानंदैकस्वभावस्य ण य मरणं प्राणत्यागरूपं मरणं मृत्युरपि नास्ति । कथंभूतस्य मम । विशुद्धस्य रागद्वेषमोहाद्युपाधिरहितस्य अथवा वातपित्तश्लेष्मादिदोषरहितस्य । यदि व्याधिमरणमपि परमात्मनि नास्ति तर्हि क्वास्ति । वाही मरणं व्याधिर्मरणं च काये तम्हा दुःखं ण मे अस्थि तस्मात्कारणात् दुःखादेरभावात् मम अविनश्वरपरमानंदमेदुरात्मनः दुःखं नास्ति । तदुक्तं
रुम्जरादिविकृतिर्न में जसा सा तनोरहमितः सदा पृथक् ।
मेलनेपि सति खे विकारिता जायते न जलदैर्विकारिभिः ॥ १०२ ॥
यद्यपि शरीर में रागादि भावों का उत्पाद है परन्तु अनन्त सुख सम्पन्न मुझ में किंचित भी रागादि भाव नहीं हैं, इस प्रकार की भावना में तत्पर होने वाला ही क्षपक होता है. ऐसा कहते हैं
विशुद्ध आत्मा वाले मेरे कोई भी व्याधि नहीं है और मरण भी नहीं है। व्याधि और मरण तो शरीर सम्बन्धी है और मैं शरीर वाला हूँ नहीं, इसलिए मुझे किसी प्रकार का दुःख भी नहीं है ।। १०२ ।।
नित्य निरंजन शुद्धात्मा के सम्यक् श्रद्धान, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रय के आराधक मेरे किसी प्रकार की अधि-व्याधि नहीं है।
विशुद्ध राग-द्वेष मोह रूप भाव भाव की उपाधि से रहित वात, पित्त, लेम आदि दोषों से रहित, नित्य आनन्द एक स्वभाव त्राले मेरे प्राणत्याग रूप मरण भी नहीं है। अर्थात् जिन शुद्ध ज्ञान, दर्शन चेतना रूप भावप्राणों से मैं जीता हूँ उन प्राणों का नाश होता नहीं है इसलिए मेरा मरण भी नहीं है।
शंका - यदि व्याधि आदि आत्मा में नहीं है तो फिर किसमें है? उत्तर - यद्यपि शरीर के साथ संयोग रखने वाले आत्मा के शरीर का वियोग होने पर व्यवहार में मरण कहा जाता है परन्तु निश्चय से आत्मा का नाश नहीं होने से आत्मा का मरण नहीं है, न आत्मा में व्याधि है। शरीर सम्बन्धी ममत्व रूप दुःख के कारणों का अभाव होने से अविनाशी परमानन्द से व्याप्त (परिपूर्ण) मेरी आत्मा में कोई दुःख नहीं है। मैं तो स्वकीय परमानन्द में निमग्र हूँ। सो ही कहा है
"मैं शरीर से सदा काल पृथक ( भिन्न) हूँ । इसलिए में रोग, बुढापा आदि विकृति मेरे नहीं है। शरीर का मेरे साथ मिलाप होने पर भी मुझमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता है। क्योंकि विकारी बादलों के द्वारा आकाश में विकार नहीं होता || १०२ ॥