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आसधनासार - १९३
भित्तूण रायदोसे छित्तूण य विसयसंभवे सुक्खे। अगणतो तणुदुक्खं झायस्स णिजप्पयं खवया ।।९९ ।।
भित्वा रागद्वेषौ छित्वा च विषयसंभवानि सुखानि ।
अगणयस्तनुदुःखं ध्यायस्व निजात्मानं क्षपक ॥९९ ।। खवया भो क्षपक झायस्स ध्यायस्व आराधय। कं। णिजप्पयं निजात्मानं चैतन्यस्वभावं यन्नाम्नवायमात्मा सुखी भवति । यदुक्तम्
नाममात्रकथया परात्मनो भूरिजन्मकृतपापसंक्षयः ।
बोधवुत्तरुचयस्तु तद्गता: कुर्वते हि जगतां पति नरम् ।। किं कृत्वा । भित्तूपा रायदोसे भित्वा रागद्वेषौ रागद्वेषविरहित एव स्वात्मानमनुभवति । यतः उक्तम्
रायहोसादिया इहलिजह व जस्म मणसलिा:
सो पियतच्चं पिच्छड़ णउं पिच्छद तस्स विवरीओ। पुनः किं विधाय। छित्तूण य विसयसंभवे सुक्खे विषयेभ्यः संभव उत्पत्तिर्येषां तानि विषयसंभवसुखानि छित्वा मूलतः समुन्मूल्य। यदुक्तम्
हे क्षपक ! राग- द्वेष का नाश कर, पंचेन्द्रिय विषयजनित सुखों का त्याग कर और शारीरिक दुःखों की तरफ लक्ष्य न देकर तू निजात्मा का ध्यान कर ।।९९ ।। - हे क्षपक ! जिसके नाम का उच्चारण करने से आत्मा सुखी होता है, उस चैतन्य स्वभाव निज आत्मा की निरन्तर आराधना कर | कहा भी है
परमात्मा के नाम मात्र की कथा से भव्य प्राणियों के अनेक जन्मों में उपार्जित किये हुए पाप क्षय हो जाते हैं और परमात्मा के ध्यानगत सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र मानव को जगत् का पति (स्वामी) बना देते हैं।
ग़ग-द्वेष को भेदकर, ग़गद्वेष से रहित ही आत्मा स्वकीय आत्मा का अनुभव करता है। कहा भी है
जिनका हृदय रूपी जल राग-द्वेष रूपी वायु से चंचल नहीं है, कम्पित नहीं है; वे ही मानव निजताव (शुद्धात्मतत्त्व) का अवलोकन कर सकते हैं। जिनका हृदय रागद्वेष से चंचल है वे निजतत्त्व का अवलोकन नहीं कर सकते।
विषयों के कारण जिसकी उत्पत्ति होती है वह विषयसंभव है। उन विषयों से उत्पन्न सुखों को मूल से उखाड़ने वाले, उनका त्याग करने वाले ही आत्मा का अनुभव कर सकते हैं इसलिए इनका परित्याग करना चाहिए। कहा भी है