________________
आराधनासार-११२
क्षुत्तृट्प्रभवानि न किंचिदिव प्रतिभात्येवरूपा भावना इतिभावना तया भावितः पुनः पुनः संस्कृतः इतिभावनाभावितः, अथवा मम जरामरणादिरहितस्य विशुद्धस्य निश्चयेन दुःखं नास्तीत्येवरूपा भावना तया भावितः इतिभावनाभावितः क्षपकः। किं करोतीत्याह । पडिवज्जड़ प्रतिपद्यते स्वीकरोति । कं । ससहावं स्वस्वभावं आत्मस्वभावम् । यदुक्तम्
इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्र बलात् तन्मूलां बहुभावसंततिमिमामुद्धर्तुकाम: समम् । आत्मानं समुपैति निर्भरवहन् पूर्णीकसं विद्युतं
येनोन्मूलितबंध एव भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति ।। आत्मस्वभावमास्थितः क्षपकः कीदृशो भवतीत्याह। हवइ सुही णाणसुक्छेण भवति । कीदृशो भवति । सुखी अनिर्वचनीयसुखसंपन्नः । केन कृत्वा। ज्ञानसौख्येन भेदज्ञानजनितविविधतराह्लादेन ।।२८ ॥
दुर्धरदुःखानि तृणाय मन्यमानः स्वात्मानमेवाराधयेति शिक्षां ददन्नाह
प्यास, शीत, उष्ण सम्बन्धी दुःख कुछ भी नहीं है। इस प्रकार की आबना, 'पुन: मितान के संस्कार से भावित क्षपक अथवा 'जन्म-मरण से रहित विशुद्धात्मा मेरे निश्चय नय से कुछ भी दुःख नहीं है', ऐसी भावना से परिणत क्षपक शारीरिक दुःखों को कुछ भी नहीं गिनता है। शरीर की ओर लक्ष्य नहीं देता है, निज शुद्धात्मामृत में लीन रहता है, वह क्षपक अपने शुद्ध स्वभाव को प्राप्त होता है। कहा भी है समयसार कलश में अमृतचन्द्राचार्य ने
“इस प्रकार जो पुरुष परद्रव्य का और अपने भावों के निमित्त-नैमित्तिकपने का विचार करके तथा समस्त पर-द्रव्य का स्वकीय पराक्रम से त्यागकर और पर-द्रव्य जिसका मूल है ऐसे विविध प्रकार के भावों की परिपाटी को दूरसे एक साथ उखाड़ने का इच्छुक अतिशय से बहने वाले प्रवाह रूप धारावाही पूर्ण एक संवेदन युक्त अपनी आत्मा को प्रात होता है; जिसने कर्मबंध को मूल से उखाड़ दिया है ऐसा यह भगवान आत्मा अपनी आत्मा में स्कुरायमान होता है।" अर्थात् जो भत्र्यात्मा परद्रव्य और स्वकीय विभाव भाव का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध जानकर परद्रव्य का त्याग करता है तब रागादि विभाव भावों की संतति कट जाती है और स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति होती है।
आत्म-स्वभाव में स्थित क्षपक भेद-विज्ञान-जनित विविधतर आह्लाद से अनिर्वचनीय सुख से सम्पन्न होकर ज्ञानसुख से सुखी होता है। अर्थात् बाह्य शारीरिक दुःखों का अनुभव न करके स्वकीय स्वभाव में लीन रहता है वह क्षपक केवलज्ञानमय सुखका भोक्ता बनता है ।।९८ ।।
हे क्षपक ! दुर्धर दुःखों को तृण के समान समझकर अपनी शुद्धात्मा की आराधना करो, इस प्रकार आचार्यदेव शिक्षा देते हैं