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आराधनासार - १८४
तीव्रवेदनाभिभूतः क्षपकः खल्वनयोक्त्या प्रोत्साह्यत इति शिक्षा प्रयच्छन्नाह
धण्णोसि तुमं सुजस लहिऊणं माणुसं भवं सारं । कयसंजमेण लद्धं सण्णासे उत्तमं मरणं ।।९२ ।।
धन्योसि त्वं सद्यशः लब्धा मानुष भवं सारम् ।
कृतसंयमेन लब्धं संन्यासे उत्तम मरणं ।।९२ ।। भो सुजस शोभनं राकाशशांकधवलं यशो यस्य स साशा: तस्य संबोधनं क्रियते भो सद्मश: भो क्षपक भो पुरुषोत्तम त्वं धन्योसि कृतपुण्योसि कृतकृत्योसि येन त्वया संन्यासे संन्यसनं संन्यासस्तस्मिन् संन्यासे संन्यासमाश्रित्य उत्तम मरणं उत्तमानां पंचविधमरणानामन्यतमं यत्त्वया लब्ध प्राप्तं । किं कृत्वा पूर्वं । लहिऊणं माणुसं भवं सारं मानुष्यं भवं नृभवांतरं सारं समस्तभवांतरेषु सारभूतं लब्ध्वा संप्राप्य यो नृत्वं दुःप्राप्यं प्राप्य गृहिधर्मभाचरति स धन्यः । य:- पुन: स्वात्माराधनपूर्वक तपस्तपति तस्य पुनः किं वाच्यम्। यदुक्तं
लब्ध्वा जन्म कुले शुचौ वरवपुर्बुद्ध्वा श्रुतं पुण्यतो, वैराग्यं च करोति यः शुचितपो लोके स एकः कृती। तेनैवोज्झितगौरवेण यदि वा ध्यानं समापीयते, प्रासादे कलशस्तदा मणिमयैर्हेमैस्तदारोपितः ।।
तीव्र वेदना से अभिभूत हुए क्षपक को निश्चय से इस युक्ति से प्रोत्साहित करते हुए, इस प्रकार शिक्षा हुए पा) -
"हे क्षपक ! हे सुयश ! मानवभव के सार को प्राप्त कर तुमने कृतसंयम के द्वारा संन्यास में उत्तम मरण प्राप्त किया है, इसलिए तुम धन्य हो ॥१२॥
हे क्षपक ! चन्द्रमा के समान निर्मल हे यशस्वी ! तुम धन्य हो, तुम कृतकृत्य हो, तुम पुरुषोत्तम हो, तुम कृतपुण्य हो, क्योंकि तुमने संन्यास का आश्रय लेकर उत्तम मरण (पंडित भरण) करने का प्रयत्न किया है।
हे क्षपक ! तुमने सारे भवान्तरों में (चौरासी लाख योनियों में) सारभूत, दुष्प्राप्य मानव भव को प्राप्त कर गृहस्थावम्धा में निरतिधार व्रतों को पालन किया और तत्पश्चात् स्वात्मा की आराधनापूर्वक तप तप रहे हो, संन्यास धारण किया है, समाधिमरण करने में तत्पर हो अत: तुम धन्यवाद के पात्र हो। तुम्हारी महिमा का कथन क्या करें! कहा भी है
"जो भव्य प्राणी पवित्र कुल में जन्म और उत्कृष्ट शरीर प्राप्त कर तथा पूर्वोपार्जित पुण्य से श्रुत को जानकर तथा वैराग्य को प्राम कर पवित्र निर्दोष तप तपता है, लोक में वही एक पुण्यात्मा है। यदि वह गर्व को छोड़कर ध्यान में लीन होता है, अन्त में समाधिभरण करता है नो यह महल पर सुवर्णरचित और मणिजड़ित, कलशों का आरोपण करता है अर्थात् सुवर्णमय महल पर मणिमय कलश चढ़ाता है।"