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आराधनासार-१४७
पिच्छह णरयं पत्तो मणकयदोसेहिं सालिसिस्थक्खो। इय जाणिऊण मुणिणा मणरोहो हवइ कायब्बो ।।६३॥
प्रेक्षध्वं नरकं प्राप्तो मन:कृतदोषैः शालिसिक्थाख्यः ।
इति ज्ञात्वा मुनिना मनोरोधो भवति कर्तव्यः ॥६३ ।। भो भव्यजनाः पिच्छह प्रेक्षध्वं पश्यत विलोकयत बहुशास्त्रेषु प्रसिद्ध-वाक्यं समाकर्णयत इत्यर्थः । किंतत्। मणकयदोसेहिं मन:कृतदोषैः चित्तविरचितापराधैः सालिसिथक्खो शालिसिस्थाख्यः मत्स्यविशेष; शरयं नरकं श्वभ्रं पत्तो प्राप्तो गतः इति । इय जाणिऊण इति एवं ज्ञात्वा विज्ञाय मुनिना संयमिना मणरोहो मनोरोध: चित्तसंकोचः कायव्यो कर्तव्यः करणीयः हवइ भवति युज्यते इति तात्पर्यम् । तथाहि । शालिसिक्थनामालयडिगोष: महापरयनाच्दयाले जलगी मात्रयकर्ण स्थितः। तस्य महानिद्रानुभवतो व्यावृतो मुखे अनेकमत्स्यादीनां जंतुचराणां समूहाः प्रविशंति निःसरंति क्रीडति स्वेच्छया तिष्ठति चेति पश्यन् व्याकुलत्वेन चिंतापरायणो जातः किमयं मूढात्मा मुखं न संवृणोति येन सर्वाणीमान्यस्योदरे तिष्ठति, यद्यहमेवंभूतोऽभविष्यंस्तदा सकलानीमान्यकवलयिष्यामिति रौद्रध्यानपराधीनस्तेषामलाभेपि मनोरचितदुश्चरित्रेणैव तथाविधं पापं समुपायं नरकं गत इति श्रुतिः। एवं ज्ञात्वा मुनिसमूहेन मनोरचितदोषासमर्थः अनावरणत्वादिति संदेहं निर्मूल्य मनसो ज्ञानबलेन निरोध एव करणीय इति तात्पर्यार्थः ।।६३।।
हे क्षपक ! देखो, मनकृत दोष के द्वारा शालिसिक्थ नामक मच्छ नरक को प्राप्त हुआ, ऐसा जानकर मनिराजों को मन का निरोध करना चाहिए॥६३11
हे भव्यजन ! देखो, बहुत शास्त्रों में प्रसिद्ध वाक्य को सुनो, मानसिक अपराध के कारण शालिसिक्थ नामक मगरमच्छ नरक में गया था। ऐसा जानकर संयमीजनों को अपने मन का निरोध करना चाहिए |
असंख्यात द्वीप-समुद्रों के अन्त में स्वयंभूरमण नामक समुद्र के मध्य में एक हजार योजन लम्बा, पाँचसौ योजन चौड़ा और ढाई सौ योजन ऊँचा महामगरमच्छ रहता है। उस मगरमच्छ के कर्ण के मैल को खाकर जीवित रहने वाला, तन्दुल के बराबर छोटा शालिसिक्थ नामक भच्छ रहता है। मुख फाड़कर (खोलकर) महानिद्रा का अनुभव करने वाले उस मगरमच्छ के विकराल मुखमें जल में विचरण करने वाले अनेक विशालकाय मत्स्यादि जीवों का समूह प्रवेश करता है, निकलता है, क्रीड़ा करता है और स्वेच्छा से उसके मुख में कुछ देर के लिए बैठ भी जाता है।
इस प्रकार उन जलचर जीवों को मुख में घुसकर जीवित निकलते देखकर वह शालिसिथ मच्छ व्याकुल होकर सोचता है कि यह मूढात्मा (मूर्ख) अपने मुख को बन्द क्यों नहीं करता जिससे अनायास मुख में आगत सारे जन्तु इसके उदर में रह जाते । व्यर्थ ही स्वयमेव मुख में आगत जीवों को छोड़ देता है। यदि कहीं मुझे यह शक्ति प्राप्त हो जाती तो मैं एक भी जल-जन्तु को जीवित नहीं छोड़ता। सर्व जीवों को अपना ग्रास बना लेता। इस प्रकार रौद्र ध्यान में लीन और उन जन्तुओं के भक्षण का लाभ प्राप्त नहीं होने पर भी अर्थात् उनको न खाकर के भी केवल मनोजन्य दुर्भावना से पाप उपार्जन करके नरक (सातवें नरक) में गया । यह शास्त्रीय कथन है, आचार्यों के वाक्य हैं। क्योंकि प्राणियों के परिणाम ही पुण्य-पाप के कारण हैं। हे क्षपक ! इन सर्वज्ञ प्रणीत वाक्यों का श्रद्धान कर के अपने मन को बाह्य पंचेन्द्रिय विषयों में मत जाने दो। तत्त्वचिंतन और शुद्ध परमात्मा के ध्यान द्वारा अपने उपयोग को स्व में स्थिर करने का प्रयत्न करो॥६३||