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आराधनासार- १४६
स एवंविधो न संदेह: तथेदं विषयेषु प्रवर्तमानं मनो नियंत्रणीयमिति । उक्तं च
अनेकांतात्मार्थप्रसवफलभारातिविनिते वचः पर्णाकीर्णे विपुलनयशाखाशतयुते । समुत्तुंगे सम्यक प्रततमतिमूले प्रतिदिनं श्रुतस्कंधे धीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम् ।।
वीतरागसर्वज्ञवचनैर्नियुक्तो जनो यस्तु ज्ञानभावनया न निवारयति स वराकश्चतुरशीतिशतसहस्रपरिमाणेषु योनिषु संसारदुःखानि सहते न संदेह: । एवं ज्ञात्वा स्वसंवेदनज्ञानाभ्यासबलेन मनः प्रसरं निरुध्य शुद्धपरमात्मनि स्थापनीयमिति भावार्थः ॥ ६२ ॥
मनसो निरोधफलं व्याख्याय इदानीममुमेवार्थं बहुशास्त्रप्रसिद्धदृष्टांतेन दृढीकृत्य पश्चादवश्यं मुनिना मनोनिरोधो विधातव्य इत्युपदिशति
मानसिक परिणति को विशुद्ध नहीं करते हैं, विषय-वासनाओं में भटकते हुए मन को ज्ञान रूपी रस्सी से नहीं बाँधते हैं, अपने वश में नहीं करते हैं, वे संसार - वन में भटकते हैं और जन्म-मरणादि अनेक दुःखों को भोगते हैं, इसलिए सर्व प्रथम अपने मन को वश में करना चाहिए। सो ही आत्मानुशासन में कहा है:
"अनेक धर्मात्मक वस्तु के कथन रूप फूल और फलों से झुके हुए, वचन रूपी पत्तों से व्याप्त, विपुल नय रूपी सैकड़ों शाखाओं से युक्त, सम्यग् मतिज्ञान जिसका मूल है ऐसे अति उत्तुंग शोभनीय श्रुतस्कन्ध रूपी वृक्ष में धीमान् (बुद्धिमान् ) अपने मन रूपी बन्दर को रमण कराओ। अर्थात् बन्दर के समान इस चंचल मन को हे आत्मन् श्रुतस्कन्ध के अभ्यास द्वारा, वा श्रुतकथित, तत्त्व चिन्तन के द्वारा अपने वश में करो। "
राग सर्वज्ञ वचनों के द्वारा नियुक्त जन अर्थात् जिनेन्द्र भगवान के वचनों को जानने वाला भी कोई मानव यदि विषय-वासनाओं में दौड़ते हुए अपने मन को ज्ञान भावना के द्वारा नहीं रोकता है, विषयवासनाओं से मन को नहीं हटाता है तो वह बेचारा चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करके अनेक सांसारिक दुःखों को सहन करता है। इसमें कोई संशय नहीं है। ऐसा जानकर हे आत्मन् ! स्वसंवेदन ज्ञान के अभ्यास बल से स्वकीय मन के प्रसार को रोक कर अपने मन को परमात्मा के चिन्तन में स्थिर कर । स्व-स्वभाव में लीन कर ॥ ६२ ॥
मन के निरोध के फल का कथन करके अब आगे की गाथा में इसी कथन को बहुशास्त्र प्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा मन को दृढ़ करके पश्चात् मुनिराज को अवश्य ही अपने मन का निरोध करना चाहिए, ऐसा कहते हैं