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आराधनासार - १४४
मनोनरपतेर्मरणे नियंते सैन्यानि इंद्रियमयानि । तेषां मरणेन पुनर्मियंते नि:शेषकर्माणि ।।६० ।। तेषां मरणे मोक्षो मोक्षे प्राप्नोति शाश्वतं सौख्यम् ।
इंद्रियविषयविमुक्तं तस्मान्मनोमारणं कुरुत ।।६१।। युग्मं । मणणरषइणो मरणे मनोनरपतेर्मरणे मनसो विकल्पाभावे सति 'संकल्पविकल्पस्वरूपं हि मन इति निर्वचनात्' मरंति सेणाइ इंदियमयाइं इंद्रियमयानि सैन्यानि नियंते स्वकीयस्वकीयविषयेषु तानींद्रियाणि न प्रवर्तत इत्यर्थः । स्वस्वामिप्रयोगाभावात् तदभावे हि तस्यैवाभावात् ताणं मरणेण पुणो तेषामिद्रियाणां मरणेन निजविषयप्रवृत्तिराहिल्येन पुनः पुनरपि णिस्सेसकम्माई निःशेषकर्माणि सकलकर्माणि ज्ञानावरणादीनि मरति नियंते क्षयं यांति तदवस्थायां बंधाभावात।
बंधाभावे हि नवतरकर्मणामास्रवाभावात् पुरातनकर्मनिर्जीयमाणत्वात्। आस्रवाभावो हि योगाभावात् योगाभावस्तु तदवयवस्वप्रवृत्तिनिषेधात्। तदवयवाश्च मनोवाकायलक्षणाः कायवाङ्मनःकर्मयोगः इति लक्षणाभिधानत्वात्। ततो योगायत्वात् मनसा विकल्पाभावपूर्वत्वे सतीन्द्रियाणां काययोगमयाना प्रवृत्तिनिषेधे सति संवरनिर्जरासद्भावात् सर्वाणि कर्माणि क्षयं यांति इति सिद्धं । तेसिं मरणे मुक्खो तेषां कर्मणां मरणे विनाशे सति मोक्ष: अनंतज्ञानादिगुणन्यक्तिनिष्ठानां सिद्धपरमेष्ठिनामाधार;। बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष इत्यभिहितत्वात् । मोक्षे किमस्तीत्याह । मुक्ने मोक्षे सर्वकर्मक्षयलक्षणे सासयं शाश्वतमविनश्वरं इंदियविसयविमुक्कं इंद्रियविषयविमुक्तं इंद्रियाणां हृषीकाणा विषया गोचरास्तैर्विमुक्तं रहित सुक्खं सौख्यं निराकुलतालक्षणं पावेइ प्राप्नोति लभते यत एवं तम्हा तस्मात् । एवं ज्ञात्वा भो भव्याः मणमारणं कुणह मनोमारणं कुरुत। मनोमारणमिति कोर्थः। विषयेषु गच्छतो मनसो निवारण कुरुत कुरुध्वमित्यर्थः ।।६०-६१ ॥
मन रूपी राजा के मर जाने पर अर्थात् मानसिक संकल्प-विकल्परूप विभावभावों के नाश हो जाने पर इन्द्रिय रूपी सेना स्व-स्व विषयों में प्रवृत्ति करना छोड़ देती है। उनकी विषयों की अभिलाषायें मर जाती हैं। जैसे स्वामी के अभिप्राय अनसार चलने वाली राजा की सेना राजा के मर जाने पर अपने-अपने कार्यों से निवत्त हो जाती है। इन्द्रियों के मर जाने पर (इन्द्रियों के अपने-अपने विषयों से रहित हो जाने पर) सम्पूर्ण ज्ञानावरण, मोहनीयादि कर्म भी मर जाते हैं अर्थात् उन कर्मों की बंध-व्युच्छित्ति हो जाती है, बंध का अभाव होकर संवर हो जाता है। बंध का अभाव हो जाने पर (आसत्र के रुक जाने पर) नूतन कर्मों का आगमन रुक जाता है, संवर हो जाता है और पुरातन कर्म निर्धारित हो जाते हैं। कर्मों के आगमन में कारणभूत योग का अभाव हो जाने पर, संवर और निर्जरा का सद्भाव होने पर सर्व कर्मों का क्षय हो जाता है। कर्मों का क्षय हो जाने पर अनन्त ज्ञानादि गुणों की व्यक्ति रूप सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है। कहा भी है- बंध के कारणों का अभाव और निर्जरा के द्वारा सर्व कर्मों का क्षय हो जाने पर शाश्वत अविनाशी सुख की प्राप्ति होती है। इन्द्रियविषयों से रहित निराकुलता लक्षण आत्मीय सुख को क्षपक प्राप्त करता है।
__ इसलिए हे क्षपक ! इन्द्रियविषों से विमुक्त होकर मन को वश में करने का प्रयत्न करो। विषयों में जाते हुए मन को रोककर स्व शुद्धात्मा के ध्यान में लीन होकर अपने आप में रमण करो । बाह्य विषय-वासना में भटकते हुए मन को तत्त्वचिन्तन के बल से निश्चल निर्विकल्प करके शुद्धात्मा का ध्यान करो॥६०-६१ ।।