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आराधनासार- १४३
दिक्चक्रं दैत्यधष्ण्यां त्रिदशपतिपुराण्यंबुधाहांतरालं द्वीपांभोधिप्रकांडं खचरनरसुराहींद्रवासं समग्नम् । एतत्त्रैलोक्यनीद्धं पवनचयचितं चापलेन क्षणार्धे
नाश्रांतं चित्तदैत्यो भ्रमति तनुमता दुर्विचिंत्यप्रभावः ॥ इति बुद्ध्वा शुद्धबुद्धैकस्वभावपरमात्मनो भावनाबलेन मनोराजबलमबलीकृत्य निजात्मनि स्थापनीयमित्युपदेशार्थ गाथा गता ।।५९ ।।
इदानीं मनोनरपतेर्मरणे संभूते उत्तरोत्तरमिंद्रियादीनां मरणमपि जायते ततो मोक्षसुखं यतो जायते तस्मान्मनसो मारणाय प्रयोजयति यथा तथा दर्शयति
गणणालइणो मरणे गति पाइं इंदियमयाइ। ताणं मरणेण पुणो मरंति णिस्सेसकम्माइ॥६०॥ तेसिं मरणे मुक्खो मुक्खे पावेइ सासयं सुक्खं ।
इंदियविसयविमुक्कं तम्हा मणमारणं कुणइ ॥६१॥ जुअलं॥ "दिशाओं के समूह में, दैत्यों के स्थानों में, त्रिदशपति (देव) के पुरों में, बादलों के अन्तरालों में, द्वीप-समूहों के समूहों में, विद्याधर-नर-नागेन्द्र के वास में, पवन के चय (समूह) से वेष्टित तीन सौ तैंतालीस राजू प्रमाण सारे तीन लोकरूप नीड़ में यह प्राणियों का मन रूपी दैत्य अपनी चपलता से क्षणार्ध में बिना थकावट के भ्रमण कर सकता है। अत; इस मन का प्रभाव दुर्विचिंत्य है। अर्थात् उसका हम चिन्तन करके कथन नहीं कर सकते हैं।
हे क्षपक ! यह मन दुर्जेय है, ऐसा जानकर शुद्ध बुद्ध एकस्वभाव परमात्मा की भावना के बल से मनोराजा के बल को निर्बल करके अपनी आत्मा में स्थापना करनी चाहिए ।।५९ ।। इस प्रकार क्षपक को उपदेश देने वाली यह गाथा पूर्ण हुई।
__हे क्षपक ! इस दुर्जय मन को वश में करने में आत्मध्यान ही समर्थ है, अन्य कोई वस्तु नहीं; इसलिए उस शुद्ध परमात्मा का ध्यान करो, आत्मा का अनुभव करो और मन पर विजय प्राप्त करो।
____ अब मनरूपी राजा के मर जाने पर उत्तरोत्तर इन्द्रियों का मरण हो जाता है, इन्द्रियों और मन के मर जाने पर मोक्षसुख की प्राप्ति होती है, अत; मन को मारने का, वश में करने का प्रयत्न करना चाहिए, ऐसा कहते हैं
मन रूपी राजा के मर जाने पर शेष इन्द्रिय रूपी सेना भी मर जाती है। उन मन और इन्द्रियों के मर जाने पर नि:शेष कर्म मर जाते हैं, अर्थात् कर्मागमन के कारणभूत विभाव भाव भी नष्ट हो जाते हैं। उन कर्मों का नाश हो जाने पर आस्मा शाश्वत सुखरूप मोक्ष को प्राप्त करता है। इसलिए हे क्षपक! इन्द्रियों से विमुक्त होकर मन को मारने का प्रयत्न करना चाहिए। ६०-६१॥