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आराधनासार - १३९
प्रत्युत दुःखदा एव | यत:
न तदरिरिभराजः केशरी केकिस्तुत्यो, नरपतिरतिरुष्टः कालकूटोतिरौद्रः। अतिकुपितकृतांत: पन्नगेंद्रोपि रुष्टः,
यदिह विषयशत्रुर्दु:खमुग्रं करोति । तदिद्रियमल्लर्जितेनापि क्षपकेण प्रसह्य विषयाणां शरणं विहाय तत्र च सुखान्यवगणय्य परमब्रह्मपदमेव शरणं गंतव्यं तत्रैव परमसौख्यं मत्त्वेष्टव्यमिति भावः । यतः
अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वापि विषया, वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयमभून् । प्रजंत: स्वातंत्र्यादतुलपरितापाय मनसः, स्वयं त्यक्ता होते शमसुखमनंतं विदधति ।।५६।।
है और गीत सुनकर चंचल हुआ (गीत सुनने का लोलुपी) हरिण शिकारी के जाल में फँस जाता है। इस प्रकार पंचेन्द्रिय-विषयों के लोलुपी जन को काल रूपी व्याल के द्वारा डसा हुआ देखकर भी अल्पज्ञ प्राणी इन्द्रियजन्य सुखों में अनुराग करते हैं। यह आश्चर्य की बात है।
इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय के वशीभूत हुए प्राणियों की यह दशा है तो जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में फंसे हुए हैं, उनके तो दु:ख का कथन भी नहीं कर सकते।
जितना उग्र दुःख इस लोक में विषय रूपी शत्रु देते हैं उतना दुःख शत्रु, मदोन्मत्त हाथी, सिंह, सर्प, अतिरुष्ट हुआ राजा, अति भयंकर कालकूट (विष), अति कुपित हुआ यमराज (मृत्यु) और रुष्ट हुआ अजगर भी नहीं देते हैं अर्थात् पंचेन्द्रियजन्य विषयों की अभिलाषा हाथी, सिंह, सर्प आदि से भी महा दुःखदायी है।
हे क्षपक ! इन्द्रिय-भटों के द्वारा बाधित (पीड़ित) हुए क्षपक को इन सब दुःखों को सहन कर, इन्द्रिय-सुख को सुख न मानकर, विषयों की शरण छोड़कर, परम ब्रह्म परमात्मा की शरण ही महासुखकारी है, ऐसा मानकर उसी परम ब्रह्म में लीन होना चाहिए क्योंकि ये विषय चिरकाल तक रहकर भी अवश्य ही नष्ट होने वाले हैं तो इनके वियोग में क्या भेद है? जो मानव इन विषयों को स्वयं नहीं छोड़ते हैं वे इस संसार में ताप को प्राप्त होते हैं, उनके मन को अतुल परिताप देकर स्वतंत्रता से जाने वाले (नष्ट होने वाले) इन विषयों को जो स्वयं छोड़ते हैं, वे अनन्त शम सुख को प्राप्त होते हैं॥५६॥