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आराधनासार १३७
ननु निखिलदोषान् परिहर्तुकामो मुनिः कस्मादशक्य इति वदंतं प्रति वदति वदतांवरः सूरिवरः । इंदियविसयवियारा जाम ण तुट्टंति मणगया खवओ ।
ताव ण सक्कड़ काउं परिहारो णिहिलदोसाणं ॥ ५५ ॥
इंद्रियविषयविकारा यावन्न त्रुट्यंति मनोगताः क्षपकः |
तावन्न शक्नोति कर्तुं परिहारं निखिलदोषाणाम् ||५५ ॥
मनोगता इंद्रियविषयविकारा यावन्न त्रुट्यंति तावत् क्षपको निखिल दोषाणां परिहारं कर्तुं न शति । तथाहि मया मनोगता: मनः प्राप्ता इंद्रियाणां रूपादिविषयाणां च परस्परं दूरादेव संबंधे सत्यपि तेषु मनसि संकल्पः संप्रतिपद्यते तदनु मुहुर्मुहुः प्रसरणं यस्मात्तस्मात् मनोगता व्याख्यायंत इत्यर्थः । इंदियविसयवियारा इंद्रियविषयविकारा: इंद्रियाणां विषयास्त एव विकाराः । विकार इति कोर्थः । स्वस्वभावात्प्रच्याव्यान्यथाभावे प्रेरणाशीलाः यावत्कालं पण तुट्टति न त्रुट्यति मनः संगतिं परित्यज्य न गच्छति ताव तावत्कालं खवओ क्षपकः कर्मक्षपणशीलपुरुषः पिहिलदोसाणं निखिल दोषाणां निखिलाः समस्ता रागद्वेषमोहादयो दोषास्तेषां परिहारो परिहार मोचनं काउं कर्तुं ण सक्कइ न शक्नोति कारणं बिना कार्यं न दृष्टमिति वचनात् । इन्द्रियविषयविकारपरिहारकारणाभावे निखिलदोषाभावः कार्यं न संभवति । तस्मात्तपस्विना समंतत इंद्रियविषयविकारान्निराकृत्य रागादिदोषाभावेन शुद्धपरमात्मा भावितव्य इत्यभिप्रायः ||५५ ॥
निखिल दोषों का परिहार करने की इच्छा करने वाले मुनिराज किस कारण से दोषों के निराकरण में अशक्य हैं ऐसा पूछने वाले के प्रति विद्वानों में श्रेष्ठ आचार्य कहते हैं
जब तक मनोगत इन्द्रिय-विषयों का व्यापार नहीं छूटता है तब तक क्षपक निखिल दोषों का निराकरण (नाश) नहीं कर सकते ।। ५५ ।।
पंचेन्द्रियों के रूपादि विषयों का दूर से भी सम्बन्ध होने पर मन में संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते हैं। पुनः, बार-बार उनका प्रसरण होता है, अर्थात् पुनः पुनः उनका चिन्तन होता है इसलिए इनको मनोगत कहते हैं ।
आत्मा को स्वस्वभाव से च्युत करके अन्य विकार भाव को उत्पन्न करने वाले मनोगत पाँचों इन्द्रियों के रूप- रसादि विषय जब तक मन की संगति को छोड़कर नष्ट नहीं होते हैं, मानसिक संकल्पविकल्प नहीं छूटते हैं तब तक कर्मों का क्षय करने में तत्पर क्षपक समस्त राग-द्वेष-मोहादि दोषों का परिहार करने में समर्थ नहीं होता क्योंकि कारण के सद्भाव में तज्जन्य कार्य का अभाव नहीं होता। मनोगत पंचेन्द्रिय विषय - व्यापार कारण हैं और राग, द्वेष, मोहादि दोष कार्य हैं। इसलिए इन्द्रिय- विषय - व्यापार रूप कारण का परिहार किए बिना, राग-द्वेष-मोहादि कार्य का अभाव नहीं हो सकता। इसलिए तपस्वियों को मनोगत पंचेन्द्रिय विषय व्यापार को दूर कर राग-द्वेष आदि दोषों का परिहार कर के शुद्धात्मा का ध्यान करना चाहिए ।।५५ ॥