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द्वेषमय परिणति होती है उसको कालुष्य कहते हैं। मन की अप्रसन्नता अरति हैं और कायरता के अभाव को सत्त्वोत्साह कहते हैं। श्रुतरूपी अमृत का पान कर अपने मन को प्रसन्न रखता है।
यह अभ्यन्तर कषाय सल्लेखना विधि है। इस विधि का पालन करने के लिए, शरीर को कृश करने के लिए क्रमशः सर्वप्रथम अन्न का त्याग कर दूध आदि स्निग्ध पेय पदार्थों को ग्रहण करता है। तत्पश्चात् स्निग्ध पदार्थों को त्यागकर खर पान छाछ-पानी आदि देते हैं। तत्पश्चात् छाछ, गर्म पानी का भी त्याग कर उपवास करता है और नमस्कार मंत्र का जप करते हुए अपने प्राणों का विसर्जन करता है।
सल्लेखना स्थित पुरुष जीविताशंसा, मरणाशंसा भय, मित्रानुराग और निदान नामक सल्लेखनाअतिचारों से स्वकीय मन को दूर रखता है। वह सल्लेखना के फल से स्वर्ग और क्रम से मोक्षपद प्राप्त करता है। इसका विस्तार भगवती आराधना से जानना चाहिए।
जो मुनि या श्रावक समाधिमरण की साधना में मन, वचन, काय से सहयोग देते हैं, समाधि के समय उपस्थित होकर आचार्य का उपदेश माने हैं. आराधना के समरा क्षपक की सेवा करते हैं, उसकी भक्ति वा वन्दना करते हैं, वे सभी जीव नियम से चार आराधनाओं को प्राप्त कर अपना जन्म सफल करते हैं।
क्षपक की आराधना का स्थान (वसतिका) और दाह-संस्कार का स्थान (निषिधिका) तीर्थ बन जाते हैं, वन्दनीय हो जाते हैं। बेला में क्षपक का प्राणान्त हो जाने पर वैथावृत्ति करने वाले मुनिजन स्वयं उसकी मृत देह उठाकर उसी समय किसी प्रासुक स्थान में क्षेपण कर देते हैं। यदि रात्रि के समय अबेला में मरण हुआ है तो शव के अंगूठे को छेद देना चाहिए जिससे उस शव में भूत-प्रेतादि प्रवेश न करें।
यदि किसी मुनिराज, आर्यिका, क्षुल्लक आदि का मरण गृहस्थों के बीच हो और उसकी समाधि सर्वविदित हो तो गृहस्थ उसको पालकी वा विमान में बिठाकर पूर्व में निश्चित किये हुए स्थान पर निश्चित मार्ग से शीघ्रता पूर्वक ले जावें, न मार्ग में खड़े रहें और न मुड़कर देखें । शव के आगे एक गृहस्थ मुट्ठी में कुश दर्भ लेकर चले और एक गृहस्थ कमण्डलु को जल से पूर्ण भरकर कमण्डलु की नाली से पतली-पतली जल की धारा छोड़ता हुआ आगे-आगे चले।
__पूर्व में देखी हुई निषिधिका के पास जाकर डाभ की मुट्ठी खोलकर मुनि के देह को स्थापित करने की भूमि को विच्छेद रहित सम करे । यदि डाभ या तृण न मिले तो ईंटों के चूर्ण अथवा वृक्षों की शुष्क केशर (पत्तों आदि) से संस्तर को सर्वत्र सम करे क्योंकि भगवती आराधना गाथा ८२ में लिखा है कि ऊपर की ओर संस्तर के ऊँचा-नींचा होने से आचार्य का मरण, मध्य में विषम होने से संघ के प्रधान मुनि का मरण या रोग सम्बन्धी पीड़ा और नीचे की ओर विषम होने से संघ के किसी एक मुनि का मरण होता है। अतः दाह संस्कार का स्थान (भूमि) प्रासुक, निश्छिद्र और सम होना चाहिए ।