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इन सब बाह्य क्रियाओं का कथन आराथनासार में मुख्य रूप से नहीं किया गया है परन्तु जहाँ पर कषायविजगी का कथन है उसमें ये सब गर्भित हो जाते हैं। क्योंकि जब यह क्षपक कषायों को विभाव भाव समझकर छोड़ना चाहता है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यश्चारित्र और सम्यक् तप की आराधना करना चाहता है, आराधना के फल का इच्छुक है, उसके लिए ये सारी क्रियाएँ तो स्वयमेव होती हैं क्योंकि वह आराधक जानता है कि इन क्रियाओं के बिना पूर्ण रूप से आराधना का आराधक नहीं बन सकता ।
देवसेन आचार्य ने इस आराधनासार में आराधक कैसा हो, आराध्य कौन है, आराधना क्या __ है, और आराधन का फल क्या है, इनका ही कथन किया है।
* शरीर-परित्याग की विधि * आराधनासार में शरीरपरित्याग के क्रम की विधि और समाधिमरण के अन्त में शव के संस्कार की विधि का कथन नहीं किया है क्योंकि यह आध्यात्मिक ग्रन्थ है। इसलिए भगवती आराधना आदि ग्रन्थों के अनुसार संक्षेप से उनका कथन करती हूँ।
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां निष्प्रतिकारे।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्या ।। रत्न. श्रा. ॥२२॥ अर्थ - निष्प्रतिकार उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष होनेपर, बुढ़ापा आने पर और मृत्युदायक रोग होने पर धर्मार्थ शरीर को छोड़ना सल्लेखना है। अर्थात् जरा, रोग, इन्द्रिय वा शरीर-बल की हानि तथा आवश्यक क्रियाओं के करने में असमर्थता होने पर कार्यों को कृश करते हुए शरीर का त्याग करना सल्लेखना है।
सल्लेखना में मुख्य कारण है कषायों को कृश करना। कषायों को कृश करने के लिए शरीर के ममत्व का त्याग है तथा शरीर के ममत्व के त्याग के लिए बाह्य पदार्थों के त्याग का क्रमिक विधान है। यद्यपि बाह्य पदार्थों के त्याग का विधान भगवती आराधना में विस्तारपूर्वक लिखा है जिसका उल्लेख 'पुरोवाक्' में संक्षेप से किया है परन्तु रत्नकरण्डश्रावकाचार में मन्द बुद्धि वालों के लिए संक्षेप से कधन किया है- वह इस प्रकार है। सल्लेखना धारण करने का इच्छुक सेह, वैर, संग और परिग्रह का त्याग कर स्वजन परिजन से क्षमायाचना करता है और सबको क्षमा करता है तथा कृत, कारित और अनुमोदित पापों की निश्छल भावों से आलोचना करता है। यदि श्रावक है तो महाव्रतों को धारण करता है, मुनिराज है तो केवल आलोचना करता है।
शोक, भय, अवसाद, क्लेद, कालुष्य और अरति को छोड़कर अपने उत्साह को प्रकट कर श्रुत रूपी अमृतपान के द्वारा अपने मन को प्रसन्न करना चाहिए।
इष्ट के वियोग में मानसिक आकुलता शोक है। भूख, प्यास आदि पीड़ा से चित्त में उद्वेग रहता है वह भय है। विषाद वा खेद को अवसाद कहते हैं। स्नेह को क्लेद कहते हैं। किसी विषय में जो राग