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आराधनासार- १०८
रोहणं सूक्तिरत्नानां वंदे वृंदं विपश्चिताम् । यन्मध्यं पतितो नीचकाचोप्युच्चैर्मणीयते ।।
तदहमपि त्वत्पादप्रसादेन त्वमिव ज्ञानी बुभूषामि । मुनिरपि तं सूर्यमित्रमासन्नभव्यं विज्ञाय व्याजहार । भो अहमिव यदि त्वं दिगंबरः स्याः तदा ज्ञानी भवेः । सोपि "दिगंबरो भूत्वा कलां गृहीत्वा पुनः स्वगृहं यास्यामीति विचार्य" जगाद । स्वामिन्मां दीक्षादानेन लघु प्रसादय । मुनिनापि स तपश्चरणं ग्राहितः । सोपि श्रुतपदानि पठन् सद्यः सम्यग्दृष्टिः दृढव्रतश्चाभूत् । यदुक्तं
शास्त्राग्नौ मणिबद्धव्यो विशुद्धो भाति निर्वृतः । अंगारवत् खलो दीप्तोऽमली वा भस्मना भवेत् ॥
गुरुमापृच्छ्य तीव्रतपश्चरणं चरन् कौशांबीनगरी गतवान् । तत्र कांश्चिदुपवासान् कृत्वा पारणार्थमग्निभूतिमरुद्धृतिमंदिरं प्रविशन्। अग्निभूतिरपि सप्तगुणसमन्वितः तस्मै मुनये नवकोटिविशुद्धयाहारं दत्तवान्, ततो मुनिर्गृहीताहारस्तद्गृहे क्षणं तस्थिवान् । सर्वैरपि द्विजात्मजैर्यतिर्नमस्कृतः । अग्निभूतिना प्रेरितोपि
जाकर कपट से वन्दना की। वह बोला “सूक्ति रूपी रत्नों के सोपान विद्वानों के समूह को मैं नमस्कार करता हूँ, जिनके मध्य में गिरा हुआ नीच काच का टुकड़ा भी उत्तम मणि के समान आचरण करता है। अर्थात् आपका सान्निध्य पाकर मेरे जैसे अज्ञ प्राणी भी विद्वान् बन सकते हैं। हे गुरुदेव ! मैं भी आपके प्रसाद से आपके समान ज्ञानी बनना चाहता हूँ ।"
मुनिराज ने भी सूर्यमित्र को आसन्नभव्य समझकर कहा, “भो द्विज! यदि तुम मेरे समान दिंगम्बर मुद्रा धारण करो तो मेरे समान ज्ञानी बन सकते हो, अन्यथा नहीं। वह सूर्यमित्र भी "दिगम्बर होकर इनसे त्रिकाल को जानने वाले ज्ञान को ग्रहण कर पुनः घर चला जाऊँगा।" ऐसा विचार कर बोला, "स्वामिन्! इस दीक्षा को प्रदान करने की मुझ पर कृपा करो?" मुनिराज ने भी उसको दैगम्बरी दीक्षा प्रदान की। वह सूर्यमित्र भी श्रुतपर्दो को पढ़कर शीघ्र ही सम्यग्दृष्टि और दृढ़ व्रती हो गया । आत्मानुशासन में कहा है
"भव्य प्राणी शास्त्र रूपी अग्नि में मणि के समान विशुद्ध होकर निर्वाण पद को प्राप्त होता है, और दुष्ट प्राणी अंगार के समान देदीप्यमान होकर भी अन्त में भस्म होकर नष्ट हो जाता है अर्थात् भव्य सम्यग्दृष्टि प्राणी शास्त्रज्ञान को प्राप्त कर निर्मल बनता है, कर्म कालिमा का नाशकर उत्तम पद को प्राप्त करता है और अभव्य ११ ( ग्यारह ) अंग का पाठी होकर भी आत्मकल्याण नहीं कर सकता। सूर्यमित्र भी शास्त्रज्ञान से सम्यग्दृष्टि होकर भावलिंगी मुनि बन गया |
एक दिन सूर्यमित्र गुरु को पूछकर उनकी अनुमति से घोर तपश्चरण करते हुए कौशाम्बी नगरी में आये । उस नगरी में उपवास के पारणे के लिए उन्होंने अग्निभूति और मरुभूति के घर में प्रवेश किया ।
मुनिराज को अपने द्वार पर आये देखकर अग्निभूति का मनमयूर नाच उठा । हर्ष से उसका सारा शरीर रोमांचित हो गया। आनन्दा से मुख प्रक्षालित हो गया। उसने सम्मुख जाकर हाथ जोड़कर गद्गद वाणी से “हे भगवन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ, आहार जल शुद्ध है," ऐसा उच्चारण कर तीन प्रदक्षिणा देकर पड़गाहन किया | मन-वचन काय शुद्ध है। हे गुरुदेव ! घर में प्रवेश करो" ऐसा कहकर घर में लाये, उच्चासन दिया, पाद प्रक्षालन किया, नमस्कार किया और "गुरु देव मन वचन काय शुद्ध है, अन्न जल शुद्ध है, गुरुदेव ! भोजन ग्रहण करो। " ऐसे नवधा भक्तिपूर्वक मुनिराज को आहार दिया ।